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________________ 94...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन आदि से बचने के लिए या सम्मान-प्रतिष्ठा के लिए छत्र धारण करना 21. चिकित्सा-रोग निवारण हेतु चिकित्सा करना 22. उपानह-जूते पहनना 23. ज्योति समारम्भ-दीपक, चूल्हा आदि सुलगाना 24. शय्यातरपिण्डस्थान दाता के घर से भिक्षा लेना 25. आसंदी-मञ्चिका आदि पर सोना बैठना 26. पर्यंक-पलंग पर बैठना 27. गृहान्तर निषद्या-निष्प्रयोजन गृहस्थ के घर बैठना 28. गात्रउद्वर्तन-पीठी-उबटन आदि लगाना 29. गृहि वैयावृत्यगृहस्थ से अकारण सेवा लेना या गृहस्थ की सेवा करना 30. जात्याजीविकासजातीय या सगोत्रीय बताकर आहार आदि प्राप्त करना 31. तापनिवृत्ति-गर्मी के निवारण के लिए सचित्त जल एवं पंखे आदि का उपयोग करना 32. आतुर स्मरण-कष्ट आने पर प्रिय बान्धवों का स्मरण करना 33-39. मूली, अदरक, कंद, इक्षुखंड, मूल, कच्चे फल एवं सचित्त फलों का सेवन करना 40-45. अपक्व सौंचल नमक, सैन्धव नमक, सामान्य नमक, रोमदेशीय नमक, समुद्री नमक एवं काला नमक का उपयोग करना 46. धूम नेत्र-शरीर या वसति को धूप आदि से सुवासित करना 47. वमन-रोग प्रतिकार के लिए या रूप-बल आदि को बनाए रखने के लिए वमन करना 48. वस्तिकर्म विरेचनएनीमा आदि लेकर शौच करना 49. अंजन-आँखों में अंजन लगाना 50. दंतवण-दाँतों को दातौन से घिसना 51. गात्र अभ्यंग-शरीर पर तेलमर्दन करना, या व्यायाम करना या कुश्ती लड़ना 52. विभूषण-शरीर को अलंकृत करना। अनाचीर्ण से हानि जैन मुनि सामान्य स्थिति में ऊपर वर्णित अनाचीर्णों का आचरण कभी भी न करें, क्योंकि दशवैकालिक चूर्णि के उल्लेखानुसार उनमें निम्न दोष लगते हैं 48- 1. औद्देशिक से जीववध 2. क्रीतकृत से अधिकरण 3. नित्याग्रह से समारंभ 4. आहत से षड्जीवनिकाय का वध 5. रात्रिभोजन से जीववध, 6. स्नान से विभूषा, 7. गंधमाल्य से सूक्ष्म जीवों का उपघात और लोकापवाद, 8. वीजन से सम्पातिम वायुकाय जीवों का वध, 9. सन्निधि से पिपीलिका आदि जीवों का वध 10. गृहीभाव से अप्कायिक जीवों का वध 11. राजपिण्ड से संयम विराधना एवं एषणा का घात 12. संबाधन से सूत्र और अर्थ की हानि एवं
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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