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________________ 92...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन लिखा है।40 आचार्य नेमिचन्द्र ने 'दर्शन' परीषह के स्थान पर 'सम्यक्त्व' परीषह माना है। दर्शन और सम्यक्त्व इन दोनों में केवल शाब्दिक अन्तर है, भाव का नहीं।41 ___बाईस परीषहों की तुलना वैदिक एवं बौद्ध परम्परा से भी की जा सकती है। वैदिक परम्परा में मुनि को जान-बूझकर अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने का निर्देश दिया गया है। मन ने कहा है-वानप्रस्थी को पंचाग्नि के बीच खड़े होकर, वर्षा में बाहर खड़े होकर और सर्दी में भीगे वस्त्र धारण कर कष्ट सहन करना चाहिए।42 भगवान बुद्ध भिक्षु जीवन में आने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करने का उपदेश देते हुए सुत्तनिपात में कहते हैं कि मुनि शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, वात, आतप, दंश और सरीसृप का सामना कर खड्ग विषाण की तरह अकेला विचरण करे।43 यद्यपि बौद्ध साहित्य में कायक्लेश को किंचित मात्र भी महत्त्व नहीं दिया गया है किन्तु परीषह सहन करने पर विशेष बल दिया है। यदि समीक्षात्मक दृष्टि से विचार किया जाए तो परीषह साधना प्रगति के लिए परमावश्यक है। जिस तरह भूमि में वपन किया गया बीज तभी अंकुरित होता है जब उसे जल की शीतलता के साथ सूर्य की उष्मा प्राप्त हो, उसी तरह साधना की सफलता के लिए अनुकूलता की शीतलता के साथ प्रतिकूलता की उष्मा भी आवश्यक है। बाईस परीषहों का चिन्तन यदि मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में किया जाए तो इन परीषहों के द्वारा मनोबल में वृद्धि एवं सहिष्णुता का अभ्यास होता है। क्षुधा, पिपासा आदि परीषह सहने से आहार विजय प्राप्त होती है। शीत, उष्ण, दंश, अचेल आदि परीषह सहने से देहाध्यास में कमी आती है। याचना, अलाभ, मल, अज्ञान आदि परीषह सहने से अहंकार का दमन होता है तथा प्रज्ञा, सत्कार, स्त्री आदि अनुकूल परिषहों को सहन करने से आत्मप्रशंसा आदि के भाव उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार विविध परीषहों पर विजय प्राप्त करने से जीवन में आध्यात्मिक उत्कर्ष एवं मानसिक स्थिरता आती है। यदि प्रबंधन की दृष्टि से विचार करें तो परीषह जय तनाव प्रबन्धन, शरीर प्रबन्धन, भाव प्रबन्धन में बहुत सहायक हो सकता है। चर्या, निषद्या, शय्या, अरति आदि परीषह सहने से शरीर प्रतिकूल
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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