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________________ 90...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन 10. निषद्या परीषह-स्वाध्याय आदि के लिए एक आसन में बैठना। श्मशान, शून्यागार या वृक्ष के मूल में अचपल भाव से बैठना अथवा बैठने के लिए विषम भूमि हो तो मन में दुखी नहीं होना। 11. शय्या परीषह-ठहरने या सोने के लिए विषम भूमि हो या तृण, पराल आदि उपलब्ध न हो तो उस कष्ट को सहन करना। 12. आक्रोश परीषह-यदि कोई कठोर-कर्कश या अपशब्द कहे तो उन्हें सहन करना और उसके प्रति क्रोध नहीं करना। ___13. वध परीषह-यदि कोई मुनि को लकड़ी आदि से मारे या ताड़ना आदि करे तो भी समभाव रखना। ___14. याचना परीषह-भिक्षावृत्ति करते हुए किसी प्रकार का अपमान होने पर समभाव से सहन करना। मुनि की यह चर्या अत्यन्त कठिन है क्योंकि उसे जीवनभर सब कुछ याचना से ही मिलता है। गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है, ऐसा विचार कर मन में दु:खी नहीं होना अपितु मनि मर्यादा का पालन करते हुए भिक्षावृत्ति करना। ____ 15. अलाभ परीषह-वस्त्र, पात्र आदि सामग्री अथवा आहार प्राप्त नहीं होने पर भी समभाव रखना। 16. रोग परीषह-शरीर में किसी प्रकार की व्याधि उत्पन्न होने पर चिकित्सा नहीं करवाना और रोग वेदना को सहन करना। ___17. तृण परीषह-तृण आदि की शय्या पर सोने से तथा मार्ग में नंगे पैर चलने से कांटा आदि की चुभन हो तो समभाव से सहन करना। 18. मल परीषह-वस्त्र या शरीर पर पसीने एवं धूल आदि के कारण मैल जम जाये तो खिन्न नहीं होते हुए सहन करना। 19. सत्कार परीषह-किसी के द्वारा सम्मान किया जाये तो भी प्रसन्न नहीं होना अपितु तटस्थ रहना। 20. प्रज्ञा परीषह-अपनी बुद्धि का अहंकार नहीं करना अथवा किसी के द्वारा बार-बार पूछे जाने पर परेशान होकर यह विचार नहीं करना कि इससे तो अज्ञानी होना अच्छा था। 21. अज्ञान परीषह-यदि बुद्धि मन्द हो और शास्त्र आदि का अध्ययन न कर सकें तो खिन्न नहीं होते हुए ध्यान, सेवा, विनय आदि की साधना में प्रवृत्त रहना।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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