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________________ 88...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन बीस असमाधिस्थान का यदि वैयक्तिक या मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में चिन्तन किया जाए तो जो इन असमाधि स्थानों का सेवन नहीं करता वह संयम की रक्षा करता है। अहिंसा धर्म का दृढ़ पालक होता है। प्रमार्जन आदि करने से प्रमाद अवस्था में वृद्धि नहीं होती। स्थविर आदि बड़ों का विनय करने से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय होता है। सूक्ष्म जीवों की रक्षा करने से, कलह आदि में उत्तेजित न होने से, उचित समय में स्वाध्याय-ध्यान आदि करने से, वाणी नियन्त्रित रखने से वह सभी के लिए सम्माननीय तथा जिन धर्म की प्रभावना करता है। यदि प्रबन्धन की अपेक्षा से इन समाधि स्थानों का चिन्तन किया जाए तो इनमें संयम रखने से सर्वप्रथम मानसिक शान्ति बनी रहती है जिससे तनाव आदि में वृद्धि नहीं होती। इस प्रकार यह तनाव प्रबन्धन में सहायक होता है। सभी क्रियाएँ समयानुसार करने से समय नियोजन में सहायता मिलती है तथा शक्ति एवं समय का सदुपयोग होता है। भोजन आदि पर नियन्त्रण रखने से शरीर एवं भाव सन्तुलित रहते हैं। जीवन में अप्रमत्त दशा का विकास होने से समय, शक्ति एवं सामर्थ्य का सदुपयोग होता है। इसी प्रकार कलह आदि नहीं करना, क्रोधादि में निमित्त नहीं बनना तथा प्रतिकूल स्थिति में उत्तेजित न होने से जीवन शान्त एवं समाधियुक्त रहता है। बाईस परीषह 'परी' उपसर्ग + 'सह' धातु से यह शब्द निष्पन्न है। परीषह का शब्दानुसारी अर्थ है-सम्यक प्रकार से सहन करना अथवा मुनि जीवन में आने वाले क्षुधा आदि कष्ट परीषह कहलाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार जो कष्ट मार्ग से च्युत न होने के लिए और निर्जरा के लिए सहे जाते हैं वह परीषह है।30 ___ ज्ञातव्य है कि तपश्चर्या में भी कष्टों को सहन किया जाता है लेकिन तपश्चर्या और परीषह में अन्तर यह है कि तपश्चर्या में स्वेच्छा से कष्ट सहन करते हैं जबकि परीषह में मुनि जीवन के नियमों का परिपालन करते हुए आकस्मिक रूप से यदि कोई संकट उपस्थित हो जाये, उसे सहन किया जाता है। जिनभद्रगणि के अनुसार परीषह द्विविध प्रयोजनों से सहन किये जाते हैं
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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