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________________ 86... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन मोहनीयकर्म का उपार्जन करता है । 7. भूतोपघात - एकेन्द्रिय आदि जीवों की निष्प्रयोजन हिंसा करना । हानि - निष्प्रयोजन हिंसा करने वाला अशातावेदनीय कर्म का बन्ध करता है। 8. संज्वलन - बात-बात में क्रोध करना । हानि - क्रोधी दूसरों को तो जलाता ही है वह अपनी आत्मा और चारित्र को भी नष्ट कर देता है। 9. दीर्घ कोप - चिरकाल तक क्रोध करना। हानि-दीर्घकोप से वैरभाव का जन्म होता है और संसार की वृद्धि होती है। 10. पृष्ठमांसिकत्व - किसी की पीठ के पीछे निन्दा या चुगली करना । हानि - निन्दक स्वयं की और दूसरों की शान्ति भंग करता है तथा स्वयं की अपकीर्ति करवाता है। अठारह पापों में इसे पन्द्रहवाँ पापस्थान भी माना गया है। 11. अभीक्ष्णव भाषण - किसी विषय में शंका होने पर भी निश्चयकारी भाषा बोलना। हानि-निश्चयात्मक भाषा के अनुसार परिस्थिति घटित न होने पर जिनशासन की निन्दा होती है, बोलने वाले का अवर्णवाद होता है तथा अनेक प्रकार के अनर्थ होने की संभावनाएँ बनी रहती हैं। - 12. नवाधिकरण करण- प्रतिदिन नए-नए कलह उत्पन्न करना। हानि - कलह का प्रारम्भ करने से समुदाय में अशान्ति बढ़ती है । 13. उपशान्त कलहोदीरण - शान्त कलह को पुनः उत्तेजित करना । हानि - इससे द्वेष और वैर की परम्परा का अन्त नहीं होता है। 14. अकाल स्वाध्याय - अकाल में शास्त्रों का स्वाध्याय करना । हानि - इससे आज्ञा भंग और संयम विराधना होती है। 15. सरजस्कपाणि भिक्षाग्रहण - सचित्त धूल युक्त हाथ से भिक्षा ग्रहण करना। हानि - इससे षट्कायिक जीवों की विराधना और संयम धर्म की प्रवंचना होती है। 16. शब्दकरण - रात्रि का प्रथम प्रहर बीत जाने के पश्चात ऊँचे स्वर से स्वाध्याय करना। हानि-इससे सहवर्ती साधुओं एवं निकटवर्ती लोगों में क्रोध पैदा होने की
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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