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________________ जैन मुनि के सामान्य नियम... 81 हो 10. यहाँ कहीं भी आने-जाने में स्वतन्त्रता नहीं है यह सोचकर आया हो। व्यवहार भाष्य (257-261) के अनुसार कुछ साधु योग्य हों, तो भी निम्न कारणों से उपसंपदा हेतु निषिद्ध माने गये हैं- 1. जो एकाकी आचार्य को छोड़कर आया हो 2. पीछे आचार्य या मुनिगण वृद्ध हो और वह उनकी सेवा करता हो 3. पीछे ग्लान या रूग्ण साधु अकेला हो और वह उनकी सेवा करता हो 4. साधु- समुदाय आचार्य की आज्ञा न मानता हो केवल उससे ही भयभीत हो और 5. गुरु का सहयोगी हो । उपसंपदावान की परीक्षा करनी चाहिए, उपसंपदावान मुनि के द्वारा भी. अन्य आचार्य की परीक्षा की जानी चाहिए, उपसंपदा से पूर्व आचार्य द्वारा स्वयं का परीक्षण किया जाना चाहिए इत्यादि के सम्बन्ध में विशद जानकारी हेतु बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीषभाष्य आदि ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिए। उपसंहार मुनि जीवन का व्यवहार प्रधान आचरण सामाचारी कहलाता है। इसके क्रमिक विकास का विवरण सर्वप्रथम स्थानांगसूत्र 12 में उपलब्ध है। तदनन्तर भगवतीसूत्र13, उत्तराध्ययनसूत्र 14, पंचाशक 15, प्रवचनसारोद्धार १६ आदि ग्रन्थों में दृष्टिगत होता है। पंचाशक आदि परवर्ती ग्रन्थों में इसका विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। इस विषय में स्थानांग और भगवती में नाम एवं क्रम समान हैं। स्थानांग, भगवती एवं उत्तराध्ययन इन तीनों सूत्रों में 9वीं - 10वीं सामाचारी का क्रम समान है, शेष के क्रम में भिन्नता है तथा 9वीं सामाचारी का नाम अलग होने पर भी अर्थ समान है। वैदिक या बौद्ध परम्परा में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है । यह व्यवहारात्मक आचार है जो संघीय जीवन को सुव्यवस्थित ढंग से यापित करने के लिए अधिक आवश्यक है। जिस धर्म तीर्थ (संघ) में व्यवहारात्मक आचार का सम्यक पालन होता है, वह दीर्घजीवी एवं भव्य प्राणियों को संसार सागर से तारने में समर्थ होता है। दशविध सामाचारी का यदि प्रबन्धन की दृष्टि से अनुशीलन किया जाए तो यह व्यक्तिगत या सामुदायिक जीवन के प्रबन्धन में विशेष लाभदायी है तथा
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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