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________________ अध्याय-1 ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण विधि का मार्मिक विश्लेषण भारतीय धर्मों में ब्रह्मचर्य का सर्वोत्तम स्थान है। ब्रह्मचर्य साधना का मेरुदण्ड है। आध्यात्मिक शक्ति के ऊर्वीकरण का श्रेष्ठतम उपाय है। पूर्वाचार्यों द्वारा उपदिष्ट साधनाएँ जैसे- तप, जप, स्वाध्याय, ध्यान, परीषहजय, कषायजय, उपसर्गसहन आदि ब्रह्मचर्य रूपी सूर्य के इर्द-गिर्द घूमने वाले ग्रहनक्षत्रों के समान हैं। यदि ब्रह्मचर्य सुदृढ़ एवं प्रशस्त हो तो सभी साधनाएँ सफल होती हैं, अन्यथा शारीरिक दण्डन मात्र रह जाती हैं। ब्रह्मचर्य सभी व्रतों में अत्यन्त दुष्कर है। आगमों में कहा गया है कि जिस प्रकार इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय, कर्मों में मोहनीय कर्म एवं गुप्ति में मनोगुप्ति की साधना अत्यन्त कठिन है उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना दुष्कर है। सभी प्रकार की तप साधना में ब्रह्मचर्य सर्वश्रेष्ठ है। ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ ब्रह्म + चर्या इन दो पदों के संयोग से ब्रह्मचर्य शब्द निर्मित है। ब्रह्म का अर्थ है - आत्मा और चर्या का अर्थ है- रमण करना अर्थात आत्म स्वभाव में रमण करना अथवा स्व स्वरूप में अवस्थित होना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के लिए मैथुनविरति, मैथुनसंज्ञा से विरक्ति, इन्द्रिय और मन का संयम, आत्म रमणता, विषय विराग आदि शब्दों का प्रयोग भी किया जा सकता हैं। आधुनिक दृष्टि से ब्रह्मचर्य व्रत की उपादेयता ___ भारतीय संस्कृति की विराटता, उच्चता एवं उदात्तता का एक कारण उसकी चारित्रिक पवित्रता एवं ब्रह्मपालन की तेजस्विता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है विषय-वासना से सर्वथा विरक्त हो जाना। ब्रह्मचर्य का मनौवैज्ञानिक प्रभाव देखें तो स्पष्ट होता है कि विषय-वासना जीवन को पतनोन्मुखी बनाती है तथा शारीरिक शक्ति, वैचारिक सहिष्णुता एवं मानसिक सन्तुलन को गड़बड़ करती
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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