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________________ xivi...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के..... परिणाम की अपेक्षा मानसिक एवं भावनात्मक पतन के अवसर अधिक रहते हैं अत: आध्यात्मिक उत्कर्ष की अपेक्षा से यह सब हितकारी नहीं है। इसी तरह के कई प्रश्नों का समाधान इस ग्रन्थ में किया गया है जिससे संयम धर्म के प्रति बढ़ती उपेक्षा दृष्टि एवं अज्ञानता का निराकरण किया जा सकता है। वस्तुत: आध्यात्मिक विकास एवं मोक्ष फल की प्राप्ति हेतु सदाचार का सर्वोपरि स्थान है। सदाचारवान व्यक्ति ही अक्षुण्ण सुख की सृष्टि करते हैं। प्रस्तुत कृति में सदाचार युक्त जीवन में प्रवेश करने से सम्बन्धित विधियोंउपविधियों का मार्मिक विवेचन किया गया है जो सात अध्यायों में निम्न रीति से विभाजित है प्रथम अध्याय में ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण विधि का अनेक दृष्टियों से विचार किया है। आचार का मूल ब्रह्मचर्य है इसलिए सर्वप्रथम ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण की विधि को स्थान दिया है। दूसरे अध्याय में क्षल्लकत्व दीक्षा की पारम्परिक अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है। यदि गृहस्थ व्रती को प्रव्रज्या मार्ग पर आरूढ़ होना हो तो ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार के पश्चात क्षुल्लक प्रव्रज्या ग्रहण करनी चाहिए। यह प्रव्रज्या के पूर्व का साधना काल है। इसके माध्यम से मुनि दीक्षा हेतु परिपक्व बनाया जाता है। श्वेताम्बर मतानुसार प्रव्रज्या इच्छुक को सर्वप्रथम तीन वर्ष के लिए ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करना चाहिए। फिर तीन वर्ष के लिए क्षुल्लक दीक्षा धारण करनी चाहिए। उसके पश्चात यावज्जीवन के लिए सामायिक स्वीकार करके पंच महाव्रत ग्रहण करने चाहिए। यह क्रम व्रताभ्यास एवं निर्दोष आचरण को लक्ष्य में रखते हुए बतलाया गया है। तृतीय अध्याय में नन्दि रचना विधि का मौलिक निरूपण किया गया है क्योंकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में दीक्षा, बड़ी दीक्षा, उपधान, पदारोहण जैसे व्रतादि अनुष्ठान अरिहंत परमात्मा की अनुपस्थिति में नन्दिरचना के समक्ष किए जाते हैं। इसलिए नन्दिरचना विधि को तृतीय क्रम पर रखा गया है। प्रस्तुत शोध का चतुर्थ अध्याय दीक्षा अंगीकार करने से सम्बन्धित है। सदाचार युक्त जीवन जीते हुए अनासक्ति के अभ्यास एवं सांसारिक प्रपंचों से निवृत्त होने के लिए दीक्षा आवश्यक है। बाह्य जगत से हटकर एवं अन्तर जगत
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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