SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 244...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता पाक्षिक नियम ग्रहण करने के पूर्व ‘यदावदसमिदिः' के व्रतालापक द्वारा व्रत दिलवाते हैं। पाक्षिक नियम ग्रहण करते समय उसे एक तप की प्रतिज्ञा करवायी जाती है। दीक्षादान की अनुमति देने वाले श्रावकों के द्वारा भी कोई एक-एक तप किया जाता है, इसी प्रकार अन्य मुनियों के द्वारा भी तप किया जाता है। इस दिन मुखशुद्धि करने की परिपाटी भी है। इसमें तेरह, पांच या तीन लवंग-इलायची-सुपारी आदि को कच्चोलिका (पात्रविशेष) में डालकर उस पात्र को मुनि के आगे स्थापित किया जाता है। फिर 'मुखशुद्धिमुक्तकरणं पाठक्रियायां' इतना उच्चरित कर तथा सिद्धभक्ति, योगिभक्ति, आचार्यभक्ति, शान्तिभक्ति एवं समाधिभक्ति को पढ़कर मुखशुद्धि हेतु उक्त वस्तुओं को ग्रहण किया जाता है।195 अन्य दृष्टि से दिगम्बर-परम्परा के आदिपुराण में (पर्व 38/78) उन्नीसवीं जिनरूपता नामक क्रिया का उल्लेख है, उसे उपस्थापना के सदृश कहा जा सकता है। यद्यपि परवर्ती संकलित कृतियों में इसे बृहद्दीक्षा-विधि के नाम से उल्लिखित किया गया है। __ अनागारधर्मामृत (9/90) में उपस्थापना का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- सावध योग के प्रत्याख्यान रूप एक महाव्रत के ही भेद हैं और पाँचसमिति आदि उसी के परिकर रूप में शेष मूलगुण हैं। ये निर्विकल्प सामायिक संयम के ही भेद हैं। जब कोई मुनि दीक्षा लेता है तो निर्विकल्प सामायिक संयम ही ग्रहण करता है, किन्तु अभ्यास न होने के कारण जब व्रतच्युत होता है तब वह भेदरूप व्रतों को धारण करता है और छेदोपस्थापक कहलाता है। इस विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि दिगम्बर-परम्परा में बड़ी दीक्षा के दिन उपवास या आयंबिल तप करने की सामाचारी नहीं है। साथ ही श्वेताम्बर सामाचारी के सदृश आवश्यक सूत्रों एवं मांडली के योग करवाने की प्रणाली भी नहीं है। तुलना की दृष्टि से कहें तो श्वेताम्बरों की अपेक्षा दिगम्बर की उपस्थापना-विधि कुछ भिन्न है। ___ बौद्ध धर्म में उपस्थापना को 'उपसम्पदा' कहा गया है। यहाँ दीक्षित को श्रामणेर और उपसम्पदा धारक को भिक्षु कहते हैं। ये दो कर्म प्रमुख संस्कार के रूप में मान्य हैं। प्रव्रज्या संस्कार अल्पकाल के लिए और उपसम्पदा यावज्जीवन के लिए होती है। सामान्यतः उपसम्पदा संस्कार प्रव्रज्या के पांच वर्ष पश्चात
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy