SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 236...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता उपस्थापना व्रतारोपण विधि का ऐतिहासिक विकास क्रम जैन धर्म में संन्यास (संयम) प्रवेश के दो मार्ग कहे गये हैं। पहला मार्ग श्रमण जीवन में प्रवेश करने से सम्बन्धित है और दूसरा श्रमण समुदाय में सम्मिलित होने सम्बन्धी है। प्रव्रज्या ग्रहण पहला मार्ग है और उपस्थापना स्वीकार दूसरा मार्ग है। प्रव्रज्या के माध्यम से यावज्जीवन सामायिक व्रत में स्थिर रहने का संकल्प किया जाता है और उपस्थापना के माध्यम से यावज्जीवन पंचमहाव्रत पालन करने की प्रतिज्ञा की जाती है। अत: नवदीक्षित (प्रव्रजित) शिष्य को पंचमहाव्रत पर आरूढ़ करना अथवा स्थापित करना उपस्थापना है। यह संस्कार-विधि श्रमण समुदाय में प्रवेश देने एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र अंगीकार करने हेतु की जाती है। इस अनुष्ठान के द्वारा यह सुनिश्चित हो जाता है कि अमुक श्रमण संयमधर्म के सर्व नियमों का परिपालन करने में योग्य हो चुका है और आवश्यक आचार-विधि का सम्यक् ज्ञाता बन चुका है। साथ ही सर्वविरतिचारित्र पालन के लिए स्वयं को योग्य सिद्ध कर चुका है और श्रमण संघ के साथ प्रतिक्रमण, स्वाध्यायादि करने की अनुमति भी प्राप्त कर चुका है। बौद्ध-परम्परा में भी संन्यास प्रवेश के दो मार्गों का कथन है 1. श्रामणेर और 2. उपसम्पदा। श्रामणेर दीक्षा जैन धर्म की प्रव्रज्या के समकक्ष है और उपसम्पदा, उपस्थापना के तुल्य है। इनमें यह विशेष निर्देश है कि 8 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को श्रामणेर दीक्षा तथा 20 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को उपसम्पदा नहीं देनी चाहिए।172 यह निर्देश श्रमण-दीक्षा की अयोग्यता से सम्बन्ध रखता है। इस प्रकार की विचारणा जैन-परम्परा में भी है। वैदिक-परम्परा में संन्यास जीवन का विशेष महत्त्व नहीं है। यद्यपि उनमें गृहत्यागी के लिए वानप्रस्थ और संन्यास ऐसी दो व्यवस्थाएँ हैं। उपस्थापना विधि किस ऐतिहासिक क्रम में विकसित हुई, यह बताना कठिन है। जहाँ तक जैन आगमों का प्रश्न है वहाँ एतद् विषयक कोई विवेचन लगभग प्राप्त नहीं होता है, केवल तत्सम्बन्धी कुछ तत्त्वों पर संकेत ही मिलते हैं। यह माना जाता है कि मध्यवर्ती 22 तीर्थङ्करों के काल में मात्र सामायिक चारित्र प्रदान किया जाता है, अलग से उपस्थापना नहीं होती थी। आचारचूला (आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध) में शिष्य की उपस्थापना हेतु पाँच महाव्रतों एवं उसकी पच्चीस भावनाओं का स्वरूप मात्र बताया गया है, किन्तु महाव्रत किस विधिपूर्वक स्वीकार करवाये जाते हैं इसका कोई सूचन नहीं है।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy