SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 233 प्रकाश में अनेक प्रकार के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, जबकि रात के समय दीपक के चारों ओर कीट-पतंगें मंडराने लगते हैं। सूर्य का प्रकाश कीट-पतंगों को दूर भगाता है, तो दीपक का प्रकाश दोनों को नजदीक लाता है इसलिये जीवदया पालन करने वाले अहिंसा प्रेमियों को रात्रिभोजन का त्याग निश्चित रूप से करना चाहिये। रात्रिभोजन में बहुत आरम्भ है और जैन दृष्टि से अत्यधिक आरम्भ-सभारम्भ करने वाला जीव नरकगामी होता है। इसलिए रात्रिभोजन को नरक का प्रथम द्वार कहा गया है। जो मानव अल्प आरम्भी होता है वह नरकगति को प्राप्त नहीं होता। इसलिए पाप से डरने वालों को एवं उत्तम प्रकार के साधकों को कम से कम रात्रि को चौविहार और दिन को नवकारसी का पच्चक्खाण अनिवार्यत: करना चाहिये। ज्ञातव्य है कि अठारह प्रकार के पाप स्थानों में दसवाँ पापस्थान 'राग' है। आगमों में राग को भी पाप कहा है। रात्रिभोजन में राग की अधिकता होती है। रात्रिभोजन करने वालों को दिन की अपेक्षा रात के भोजन में अधिक आनन्द आता है। वे मजा ले लेकर चावपूर्वक रात का भोजन करते हैं। वे कहते हैं- ‘रात को खाओ-पीओ, दिन को आराम करो'। इस प्रकार राग भाव पूर्वक रात्रिभोजन करने से पापकर्मों का निकाचित बंध होता है, जिसका पूरी तरह भुगतान किये बिना कभी छुटकारा नहीं होता। ___रात्रिभोजन से अगले जन्म में ही नहीं, इस जन्म में भी दुर्गति होती है। रात्रिभोजों में कई बार जहरीले जीव-जन्तु छिपकली आदि गिर जाने से सारा भोजन जहरीला बन जाता है। उस जहरीले भोजन का सेवन करने वाले सब अस्वस्थ हो जाते हैं और फिर उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है। ऐसी घटनाएँ आये दिन अखबारों में छपती रहती हैं। जिन्हें अपना जीवन प्रिय हो उन्हें अपने एवं अपने परिवार के लिए ही सही रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए। सर्वसामान्य दृष्टि से ____ यदि हम सामान्य दृष्टि से विचार करते हैं तो रात्रिभोजन त्याग से शरीररक्षा और आत्मरक्षा दोनों ही होती है। काल की दृष्टि से भी रात्रि का अधिकतम काल पापाचरण का माना गया है क्योंकि उस समय भोगी, भोग के रस में लिप्त होते हैं। चोर, चोरी करने में व्यस्त रहते हैं। रात को फिरने वाले उल्लू वगैरह पक्षी
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy