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________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 231 हैं और उन जीवों का भक्षण होने से हमारे शरीर एवं मन को कई प्रकार से आघात पहुँचता है। जैसे__1. अंधकार में यदि भोजन के साथ चींटी आ जाए तो बुद्धि नष्ट होती है। 2. यदि भोजन में मक्खी आ जाए तो तत्काल वमन हो जाता है। 3. चूँभक्षण से जलोदर जैसा भयंकर रोग पैदा हो सकता है। 4. यदि भोजन में मकड़ी आ जाए तो कुष्ठ महाव्याधि उत्पन्न हो सकती है। 5. यदि केश मिश्रित आहार खाने में आ जाए तो स्वर भंग हो जाता है और गला बैठ जाता है। 6. कांटा, कील, लकड़ी का टुकड़ा भोजन के साथ गले में अटक जाये तो मृत्यु की संभावना भी बन सकती हैं।169 इस प्रकार रात्रिभोजन में अनेक तरह के प्रत्यक्ष रोग और दोष रहे हुए हैं। प्राचीन काल में रात्रिभोजन त्याग जैनत्व की एक पहचान थी। जो रात्रि में भोजन नहीं करता वही जैन कहलाता था किन्तु आज ऐसा नहीं है। रात्रिभोजन से स्वास्थ्य प्रतिकूल होने पर चिकित्सा हेतु समय, पैसे आदि का दुरुपयोग होता है तथा दैनिक कार्य की व्यवस्था में बाधा आती है। अत: रात्रिभोजन में स्वास्थ्य, समय, पैसे आदि सबकी हानि ही होती है, अत: विविध दृष्टि से रात्रिभोजन का निषेध सर्वथा युक्तियुक्त है। चिकित्सा की दृष्टि से एक प्रचलित कहावत है कि 'पेट को नरम, पांव को गरम, सिर को रखो ठंडा।' जो पेट को नरम रखता है, सिर को ठंडा रखता है यानी गुस्सा नहीं करता है और पांव को गरम रखता है अर्थात रक्तसंचार को नियमित रखता है उसे कभी भी डॉक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। आजकल लोग पेट को नरम और लाइट रखने के बदले टाईट रखने लगे हैं। भूख के बिना भी दिनभर खाते रहना, मन की तृप्ति के लिये कुछ न कुछ चबाते रहना, शरीर की आवश्यकता से अधिक भोजन पेट में डालते रहना, पेट को नरम रखने के बजाय कठोर रखने के कार्य हैं। जहाँ पेट नरम नहीं रहता वहाँ पांव गरम और सिर भी ठंडा नहीं रह सकता है क्योंकि रक्तचाप असामान्य हो जाता है। पेट में लूंस-ठूस कर खाद्य पदार्थ डालने से उदर सम्बन्धी कई रोग पैदा हो जाते हैं। हम देखते हैं कि जब व्यक्ति रोगग्रस्त रहता है उस समय उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन, उत्तेजना, आवेग आदि दोष स्वाभाविक रूप से पनपते
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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