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________________ 190... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नहीं करता है, विद्याभिलाषियों के लिए अध्ययन-अध्यापन का कार्य नहीं करता है, किसी को अपना ज्ञान नहीं बाँटता है तो यह भी एक तरह की ज्ञान चोरी है। चोरी का एक प्रकार यह भी माना जा सकता है कि कोई किसी पर उपकार करे और उस उपकार को भूल जाये अथवा अहंकारवश अपने उपकारी का नाम छुपाना । किसी के द्वारा पूछे जाने पर यह कहना कि यह ज्ञान तो मैंने स्वयं के बुद्धिबल से प्राप्त किया है। यह उपकार विस्मरण चोरी है। यदि माता-पिता सन्तान के प्रति या सन्तान माता-पिता के प्रति, गुरुजन शिष्य के प्रति या शिष्य गुरुजनों के प्रति, राष्ट्र - व्यक्ति के प्रति या व्यक्ति राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य नहीं निभाता है तो वह भी चोरी मानी जाती है जो कार्य स्वल्पतम समय में किया जा सकता है, उस कार्य को लम्बे समय तक करते रहना भी चोरी का एक रूप है। डॉक्टर, अध्यापक, व्यापारी, सैनिक, पुलिस, सेनापति, वकील, वैज्ञानिक आदि भी अपने कर्त्तव्य नहीं निभाते हैं तो यह सर्व कर्त्तव्य चोरी है। प्रश्नव्याकरणसूत्र के अनुसार किसी की निन्दा करना, किसी के दोषों को देखना, चुगली करना, दान आदि सत्कर्म में अन्तराय डालना अन्य जीवों के प्राणों का अपहरण करना, दूसरे के अधिकार को छीनना, किसी के हृदय को दुःखाना, किसी के साथ अन्याय करना आदि भी चोरी है। 68 अस्तेय महाव्रत के साधक को चौर्यकर्म के इन सभी प्रकारों से बचना चाहिए । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चोरी के प्रकार चौर्यकर्म के सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि केवल छिपकर या बलात्कारपूर्वक किसी व्यक्ति की वस्तु या धनादि का हरण कर लेना ही चोरी नहीं है, जैसा कि साधारण मनुष्य समझते हैं। जैन विचारणा में अन्याय पूर्वक किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का अधिकार हरण करना भी चोरी कहा गया है। यदि सूक्ष्म रूप से अवलोकन किया जाये तो प्रतीत होता है कि उदर पूर्ति के लिए या जीवन गुजारा करने के लिए जो निर्धन या असहाय व्यक्ति चोरी करते हैं वे उतने अपराधी नहीं हैं जितने दूसरों के अधिकारों का हनन करने वाले हैं। इसके कुछ रूप निम्न हैं 1. राजा, शासक या नेता के द्वारा राजनीतिक, सामाजिक या नागरिक अधिकारों का हनन करना भी चोरी है । - 2. समृद्धिशाली, उच्चवर्गीय या धर्मनिष्ठता का लेबल लगाने वालों के द्वारा निर्धन लोगों के साथ ऊँच-नीच का भेद-9 -भाव करना, उन पर अन्याय या
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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