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________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 185 हैं। इसमें सत्य और व्यवहार भाषा भी किसी को कठोर न लगे, इस प्रकार बोलनी चाहिए। असत्य बोलने के कारण जैन ग्रन्थों में असत्य बोलने के मुख्यतः छह कारण आख्यात हैं 1. क्रोध - तूं दास है इस प्रकार कहना । 2. मान अल्पश्रुत हुए भी अपने को बहुश्रुत कहना। 3. माया 4. लोभ भिक्षाटन से जी चुराने के लिए 'पैर में पीड़ा है' ऐसा कहना । सरस भोजन की प्राप्ति होते हुए देखकर निर्दोष आहार को सदोष कहना । 5. भय प्रायश्चित्त के भय से सेवित दोषों को स्वीकार नही करना । 6. हास्य कुतूहलवश असत्य बोलना। आशय यह है कि अधिकांश व्यक्ति उक्त प्रसंगों में असत्य बोलते हैं । सत्य महाव्रत की उपादेयता सत्य महाव्रत स्वीकार करने के पीछे निम्न प्रयोजन दृष्टिगत होते हैं सत्य महाव्रत का पालन करने वाला साधक वाद-विवाद, कलह-संघर्ष आदि सन्तापकारी स्थितियों से स्वयं को बचा लेता है। हमेशा के लिए सभी का विश्वास पात्र बना रहता है । चुगलखोरी करना, बढ़ा-चढ़ाकर बोलना, उतावलेपन या जल्दबाजी में बोलना, बिना सोचे बोलना, अकारण बोलना आदि असत्प्रवृत्तियाँ कम हो जाती है। क्रोध दशा में भी असत्य वचन न बोलने की प्रतिज्ञा करने से क्रोध पर नियन्त्रण होता है और सत्य-असत्य का विवेक जागृत रहता है। लोभवश असत्य वचन न बोलने की प्रतिज्ञा करने से पर-पदार्थों की आसक्ति न्यून होती है, वस्तुओं का ममत्व भाव क्षीण होता है और निर्लोभता का गुण उत्पन्न होता है। भय वश असत्य वचन न बोलने का प्रत्याख्यान करने से सात प्रकार के भय दूर होते हैं और अभय की साधना का प्रारम्भ होता है । हास्य पूर्वक असत्य भाषण न करने का प्रत्याख्यान होने से इन्द्रियों का संयम होता है, चंचल वृत्तियों का निरोध होता है, गाम्भीर्य गुण पैदा होता है तथा अन्यों के द्वारा उपहास का पात्र होने से बच जाता है। - - - —
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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