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________________ 182...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता 1. क्रोधमृषा – क्रोध वश सत्य या असत्य कुछ भी बोलना जैसे तूं मेरा पुत्र नहीं है, तूं दास है, तूं पैसे वाला है, मुझे पता है आदि शब्द सत्य होने पर भी आशय विपरीत होने से असत्य है। 2. मानमृषा - स्वयं का उत्कर्ष बताने के लिए झूठ बोलना कि 'मैं पहले ऐश्वर्यवान था, मेरी इतनी जायदाद थी' आदि। 3. मायामृषा - दूसरों को ठगने के लिए सत्य या असत्य कुछ भी बोलना, जैसे मीठी-मीठी बातें करके अन्यों की सारी हकीकत जान लेना। ____4. लोभमृषा - लोभवश अल्प मूल्य वाली वस्तु को मूल्यवान कहना लोभमृषा है। 5. प्रेममृषा - प्रेमवश असत्य भाषण करना जैसे रागवश कोई पुरुष किसी स्त्री को कहता है- मैं तेरा दास हूँ।' 6. द्वेषमृषा - द्वेषवश झूठ बोलना जैसे गुणी को निर्गुणी कहना। 7. हास्यमृषा - हँसी-मजाक में झूठ बोलना, जैसे किसी चलते हुए व्यक्ति को उसकी छाया दिखाकर कहना - देखो तुम्हारे पीछे-पीछे कौन चल रहा 8. भयमृषा – चोरादि के भय से असत्य बोलना। 9. कथामृषा - कथा को रसमय बनाने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर बात करना। 10. उपघातमृषा – किसी का मन दुःखाने के लिए कहना – 'तूं चोर है, तूं बदमाश है' आदि। (iii) मिश्र भाषा - दशवैकालिकनियुक्ति में प्रतिपादित मिश्र-भाषा के दस प्रकार निम्न हैं: 1. उत्पन्नमिश्र - गाँव में दस से कम या अधिक बच्चों का जन्म होने पर भी यह कहना कि आज गाँव में दसों बच्चे जन्मे हैं। यह व्यवहार से सत्यमृषा है। जैसे मैं तुम्हें कल सैकड़ों रुपये दंगा - यह कहकर मात्र दो सौ रुपये देना। 2. विगतमिश्र - गाँव में कम-ज्यादा लोगों की मृत्यु होने पर भी यह कहना कि आज इस गाँव में इतने लोगों का देहान्त हुआ। 3. अभयमिश्र - गाँव में कम या अधिक लोगों का जन्म हुआ हो या मृत्यु हुई हो तो भी कहना कि इतने जन्मे और इतने मरे।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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