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________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 173 अग्नि जीव है, क्योंकि पुरुष के समान आहार लेते दिखती है। यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि वह वायु, लकड़ी, तेल आदि की खुराक प्राप्त करके बढ़ती है और उसके अभाव में नष्ट होती है। इस बात को सभी मानते हैं कि पुरुष के शरीर में भी ज्वर और जठर की गरमी दिखती है, मृत्यु के बाद जठर की गरमी जीव के साथ चली जाती है और ज्वर से गरम अवयव ठण्डे पड़ जाते हैं। अग्नि में अनुभव होती गरमी भी जीव का प्रयोग रूप है। अग्नि में से जीवत्व का नाश होने पर कोयले, राख आदि उसके अचेतन अंश ठण्डे हो जाते हैं। इस प्रकार अग्नि में जीवत्व की सिद्धि अनेक प्रकार से होती है। वायुकाय का सजीवत्व - वायु सजीव है। वायु का जीवत्व इस तरह सिद्ध है कि जैसे अश्व दूसरे की प्रेरणा के बिना भी गमन करता है, उसी प्रकार वायु अन्य किसी की प्रेरणा के बिना गति करती है। यदि वायु जड़ होती तो स्वयं गति कैसे कर सकती है ? दूसरा तथ्य यह है कि शरीर स्वरूपत: जड़ है फिर भी उसमें जो हलनचलन, गमन-आगमन, बैठना-उठना आदि क्रियाएँ देखी जाती हैं, वे उसमें जीव के संयोग और उसकी ही प्रेरणा के आधार पर जाननी चाहिए। इस तरह वायु में जीवत्व है यह बात प्रमाणत: सिद्ध होती है।29 वनस्पतिकाय का सजीवत्व - वनस्पति में भी जीवत्व है। इस जीवत्व को अनुमान प्रमाण के द्वारा समझा जा सकता है। वृक्ष सचेतन हैं, क्योंकि उसमें उपलक्षण से पुरुषादि के समान जन्म, जरा, जीवन, मृत्यु, बढ़ना, आहार, दोहद, बीमारी, पीड़ा आदि होती है। अत: मनुष्यों के समान वृक्षादि की भी उत्पत्ति होने से वनस्पति में जीवत्व की सत्ता सिद्ध है। दूसरा प्रमाण यह है कि जैसे मनुष्य शरीर में जन्म लेने के पश्चात बाल, यौवन, वृद्धत्व आदि अवस्थाएँ प्रकट होती हैं वैसे ही वनस्पति में जन्म, यौवन, वृद्धत्व, मृत्यु, लज्जा, हर्ष, रोग, शोक, शीत, उष्ण आदि गुण प्रत्यक्षत: दिखते हैं। वनस्पतियों का शरीर- वृक्षादि भी मूल से बाहर आता (जन्म लेता) है। उसकी कोमलता रूप बाल्य अवस्था प्रकट होती है और छुईमुई आदि कई वनस्पतियों में लज्जा गुण भी दिखता है। मनुष्य शरीर के अवयवों के समान अंकुर, कोपल, पत्ते, शाखा, प्रशाखा और स्त्री की योनि के समान पुष्प तथा सन्तति के समान फल भी आते हैं। मानवीय शरीर को टिकाने या बढ़ाने के लिए आहार-पानी की आवश्यकता पड़ती है वैसे ही वनस्पति भी
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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