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________________ केशलोच विधि की आगमिक अवधारणा... 155 केशलुंचन करते हैं। यह विधि वर्तमान में भी प्रवर्तित है। यद्यपि तीर्थङ्करों के केशलोच और सामान्य मुनियों के केशलोच में अन्तर है। जैसे कि तीर्थङ्कर पुरुषों का संहननबल- धृतिबल प्रकृष्ट होने से वे सम्पूर्ण केशराशि को चार या पांच मुष्टि में ही उखाड़ देते हैं जबकि सामान्य साधकों में वैसा बल न होने के कारण केश उत्पाटन में समय लगता है | 38 जैनागमों में स्वयं के द्वारा केशलोच करने के भी स्पष्ट उद्धरण मिलते हैं। किसी साधु ने साध्वी का अथवा किसी साध्वी ने साधु का केशलुंचन किया हो, ऐसा उल्लेख पढ़ने में नहीं आया है। आगमों के अनुसार तो अतिमुक्त, गजसुकुमाल, मेघकुमार आदि लघुवयी राजकुमारों, श्रेष्ठिपुत्रों आदि ने अपने केशों का उत्पाटन स्वयं ही किया था। राजमती आदि निर्ग्रन्थिनियों ने भी अपने केश स्वयं ही उखाड़े, ऐसा प्रमाण उपलब्ध है। अधुनाऽपि बहुत से साधु-साध्वी अपना केशलुंचन स्वयं ही करते हैं और दूसरों से भी करवाते हैं। इस समय दोनों परम्पराएँ प्रचलित हैं। यह भी उल्लेख्य है कि लोच - विधि का व्यवस्थित स्वरूप 10वीं शती के अनन्तर दिखाई देता है। तदनुसार लोच करते समय गुर्वानुमति प्राप्त करना, लोचकार को लोच करने का निवेदन करना एवं लोच करने के पश्चात पूर्ण होने की सूचना देना, अरिहन्त का विनय करने हेतु चैत्यवन्दन करना तथा लगे हुए दोषों की शुद्धि करना आदि कृत्य सम्पन्न किये जाते हैं। इन क्रियाओं का मूलोद्देश्य नम्रता गुण को प्रकट करना है। जैन धर्म में विनय एवं नम्रता को तप कहा है। विनय जिनशासन का मूल है 'विणओ जिणसासणमूलं । ' आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में कहा है कि जिनशासन का मूल विनय है। विनीत साधक ही सच्चा संयमी हो सकता है। जो विनय से हीन है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप ? लोच विधि का समीक्षात्मक पहलू से विचार किया जाए तो पाते हैं कि यह शारीरिक दृष्टि से आरोग्यता प्रदान करता है। सिर पर केश, पसीना और मल जमा नहीं होने से दिमाग तरोताजा या शान्त रहता है, केश उखाड़ने से मस्तिष्कीय नाड़ीतन्त्र सक्रिय हो जाता है। इससे बुद्धि तीक्ष्ण एवं सूक्ष्मग्राही बनती है। धार्मिक दृष्टि से यह समभाव की साधना का एक प्रयोग है। आध्यात्मिक दृष्टि से साधक को आत्मा और शरीर के भेद का बोध होता है। केशलोच
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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