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________________ केशलोच विधि की आगमिक अवधारणा... 149 मुनि कब, किन स्थितियों में लोच करवाएं ? __ पूर्वाचार्यों के अनुसार मुनि को उपस्थापना, प्रव्रज्या, वाचनाचार्य पदस्थापना, आचार्य पदस्थापना, प्रवर्तिनी पदस्थापना, महत्तरा पदस्थापना एवं पर्दूषण आदि में नियम से लोच करना चाहिए। यदि इस समय शुभ नक्षत्र नहीं हो तो भी कार्य उत्सुकतावश पूर्वोक्त हस्त आदि नक्षत्रों से भिन्न नक्षत्रों में भी लोचादि क्षौरकर्म कर सकते हैं। __ कुछ साधु-साध्वी भाद्रमास, पौषमास एवं वैशाखमास में यानी तीनों चातुर्मास में केशलोच करते हैं। कुछ भाद्रमास और फाल्गुनमास यानी छ:-छ: मास में लोच करते हैं एवं कुछ मुनिगण पयूषण पर्व में एक बार ही केशलोच करते हैं। प्रत्येक चार माह के पश्चात केशलोच करना उत्सर्ग मार्ग है।16 केशलोच विधि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जैन-संस्कृति शम प्रधान संस्कृति है। उसमें तपश्चरण एवं उग्र-क्रिया का कुछ अधिक महत्त्व है, परन्तु वास्तविक मूल्य संयम, समता और समत्ववृत्ति का है। जब तक समत्व की भूमिका का निर्माण नहीं होता, उत्कृष्ट रूप से किया गया तप भी कुछ नहीं कर पाता है। समत्व के साथ विवेक का समन्वय भलीभांति होना चाहिए। संस्तारक प्रकीर्णक में यहाँ तक कहा गया है कि अज्ञानी साधक करोड़ों वर्षों में तपश्चरण के द्वारा जितने कर्मों का क्षय नहीं करता है, उतने कर्मों को संयमी एवं विवेकी साधक एक श्वासोश्वास जितने अल्पकाल में नष्ट कर डालता है।17 विवेकशून्य तप, तप नहीं होता, वह केवल देहदण्डन होता है। यह देहदण्डन तो नारकी जीव हजारों वर्षों तक सहते रहते हैं, परन्तु उनकी कितनी आत्मशुद्धि होती है ? भगवतीसूत्र के छठवें शतक में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा है जिस प्रकार सूखे घास का गट्ठा अग्नि में डालने के साथ शीघ्रता से भस्म हो जाता है, आग से तप्त लोहे के तवे पर रही हुई जल-बिन्दु तत्काल समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार संयमी की साधनारूपी अग्नि से पापकर्मों के दल के दल तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं। अत: जैन साधना में संयम (समता) साधना का स्थान विराट एवं व्यापक है। केशलुंचन समत्व अभ्यास की विशिष्टतम प्रक्रिया है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि यह साधक अशुभ कर्मों का क्षरण करने हेतु पूर्णत:
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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