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________________ 142...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता __केशलोच का चौथा प्रयोजन कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास करना है। केशोत्पाटन क्रिया से कष्ट सहन का अभ्यास होता है और सुखशीलता का नाश होता है। इन उद्देश्यों के अतिरिक्त 'जैन साधना का मार्ग विशुद्ध है' ऐसा अहोभाव पैदा होता है। 'जैन श्रमण के आचारमूलक नियम अति विशिष्ट हैं ऐसी अन्तरंग श्रद्धा प्रस्फुटित होती है। 'मैं परम सौभाग्यशाली हूँ- मैंने तीर्थङ्करों द्वारा आचरित सम्यक् पथ का अनुकरण किया है' ऐसा आत्मिक भावोल्लास पैदा होता है आदि अनेक हेतुओं से केशलोच की आवश्यकता पृष्ट होती है। केशलोच अन्य अपेक्षाओं से भी उपादेय है जैसे कि जो व्यक्ति सुखशील होते हैं वे केशोत्पाटन की कल्पना ही नहीं कर सकते। यदि यह सच्चाई समझ में आ जाये तो हृदय अनुमोदना से भर जाता है। जो धर्मपरायण होते हैं वे प्रतिक्षण ऐसे साधकों की छवि उच्चादर्श के रूप में अपने समक्ष रखते हैं। जो व्यक्ति विकास की चरम सीमा को पार करना चाहते हैं वे कठिन परिस्थितियों एवं बाधाओं के समुपस्थित होने पर केश लुंचन करने वाले साधकों का स्मरण करते हुए स्वयं को बाधाओं से पार ले जाते हैं। जो संवेदनशील होते हैं वे उन महापुरुषों को भगवान तुल्य समझते हुए स्वयं को सर्वात्मना समर्पित कर देते हैं। विविध दृष्टियों से केशलोच की प्रासंगिकता केशलोच जैन साधना पक्ष से सम्बन्धित एक कठिनतम क्रिया है। इसे देखकर जैन मुनि की दुष्कर साधना का परिज्ञान होता है। यदि केश लंचन का मनोवैज्ञानिक प्रभाव देखा जाये तो यह साधक मन को संयम मार्ग की दुष्कर स्थितियाँ सहन करने के लिए तैयार करता है। साधना पक्ष को परिपुष्ट और मनोबल को सुदृढ़ करता है। मानसिक एवं शारीरिक दृष्टि से आरोग्य लाभ होता है तथा स्वयं का लोच करते समय विरक्ति के भाव अधिक तीव्र बनते हैं। यदि वैयक्तिक लाभ की दृष्टि से चिन्तन किया जाए तो केशलोच करने एवं करवाने से कर्म निर्जरा होती है। परम्परा का निर्वाह होता है, स्वयं के द्वारा कष्ट सहने की सीमा का अहसास होता है, सहिष्णुता विकसित होती है। दीक्षा दाता गुरुजनों के प्रति अहोभाव में वृद्धि होती है। बालों में पसीने आदि के कारण जीवोत्पत्ति की सम्भावना रहती है जिससे अहिंसा व्रत दूषित होता है। मस्तिष्क में खुजली आदि करने से फुन्सी फोड़ा आदि भी हो सकता है जिसके लिए
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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