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________________ 132... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता सामुदायिक समस्याएँ जैसे कि आपसी स्पर्धा, मन-मुटाव, एक दूसरे के प्रति अप्रीतिपूर्ण स्थिति, असहयोग आदि को नियन्त्रित करने की शिक्षा मिलती है, क्योंकि साधु जीवन में इन सबके लिए स्थान नहीं होता। इसी प्रकार सामाजिक समस्याएँ जैसे कि टूटते परिवार, एकल परिवार की संस्कृति, कर्त्तव्य विमुखता, सम्बन्धों में बढ़ती स्वार्थवृत्ति आदि नियन्त्रित हो सकती है। किस प्रकार साधु समुदाय निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे के लिए उपयोगी बनते हैं तथा पूर्ण सजगता के साथ समुदाय एवं समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हैं आदि से समाज को आपसी सहयोग एवं कर्त्तव्य परायणता का बोध मिलता है। मण्डली योगतप की विधि आचार्य हरिभद्रसूरि एवं आचार्य जिनप्रभसूरि के अनुसार मण्डली प्रवेश के योग उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) के पश्चात करवाये जाने चाहिए, किन्तु वर्तमान में मण्डली योग उपस्थापना के पूर्व भी करवाये जाते हैं। स्पष्टार्थ है कि आवश्यकसूत्र एवं माण्डली के योग चल रहे हो उस दौरान अथवा इन योगों के पूर्ण होने के पश्चात उपस्थापना की जाती है। मांडली योग के प्रत्येक दिन में कुछ खास विधियाँ की जाती हैं। प्रव्रज्या योग विधि (संकलित उपाध्याय मणिप्रभसागरजी म.सा.) के अनुसार तत्सम्बन्धी विधियों का स्वरूप निम्न प्रकार हैं-1 प्रातः कालीन विधि 1. वसति संशोधन विधि - इसमें गुरु के आदेश पूर्वक योगवहन करने वाले मुनियों के द्वारा वसति ( उपाश्रय) के चारों ओर किसी प्रकार की अशुद्धि न हो, उसका निरीक्षण कर गुरु से निवेदन किया जाता है कि 'वसति शुद्ध' है। यह विधि निम्न है। सर्वप्रथम वसति संशोधन करें। फिर उपाश्रय में प्रवेश करते समय तीन बार निसीहि कहें। फिर गुरु के समीप जाकर हाथ जोड़कर सिर झुकाकर ‘भगवन् सुद्धावसहि' कहें। शिष्य – खमासमण देकर ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करने का आदेश लें। गुरु - ईर्यापथिक की अनुमति दें। शिष्य - इरियावहि तस्स॰ अन्नत्थ॰ कहकर एक लोगस्ससूत्र का कायोत्सर्ग 'सागरवरगंभीरा' तक करें। प्रकट में लोगस्स सूत्र कहें।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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