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________________ प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 107 समझना चाहिए। तब विघ्नों का नाश करने के लिए मंगल भी उतना ही बलवान होना चाहिए। कई बार मंगल किये बिना भी कार्यसिद्ध होता हुआ देखा जाता है। वहाँ जन्मान्तर मंगल से विघ्नों का नाश हुआ, ऐसा मानना चाहिए। मूलत: परमोपकारी अरिहन्त के प्रति भाव प्रकट करने के लिए और ग्रहण किये जा रहे व्रत की सम्यक् सिद्धि के लिए समवसरण की पूजा की जाती है। दूसरे, अरिहन्त परमात्मा भावमंगल है अत: उनके स्मरणमात्र से सर्व कार्य मंगलरूप बनते हैं यह वचन आगम-प्रमाण से सिद्ध है। दीक्षानुष्ठान की जरूरत क्यों? कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि यदि विरति (संयम) के परिणाम उत्पन्न हो जाये, तो चैत्यवन्दन, कायोत्सर्ग, वासदान आदि अनुष्ठान करना क्यों जरूरी है जैसे कि भरतचक्रवर्ती, माता मरुदेवी को पूर्वोक्त अनुष्ठान के अभाव में भी विरति परिणाम उत्पन्न हो गये थे। यदि मात्र अनुष्ठान के द्वारा ही विरति परिणाम उत्पन्न होते हों तो उस स्थिति में किसी भी जीव को संयमी बनाया जा सकता है? इसका समाधान करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है कि उपर्युक्त अनुष्ठान जिनाज्ञारूप है और जिनाज्ञा का पालन करने से समस्त क्रियाएँ सफल होती हैं। साथ ही पूर्वोक्त अनुष्ठान आवश्यक विधिरूप भी है। शास्त्रवचन है कि विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करने से गुरु बहुनिर्जरा के भागी होते हैं, क्योंकि उस समय गुरु के अन्तरंग में “यह आत्मा सांसारिक दुःखों से मुक्त बने" ऐसे परहितकारी शुभ अध्यवसाय होते हैं, यही अध्यवसाय अनन्तगुणी निर्जरा के कारण होते हैं। अत: दीक्षा विधि का पालन करना शास्त्रोक्त है, अन्यथा तीर्थोच्छेद, अनुकम्पा का अभाव आदि अनेक दोषों की सम्भावनाएँ बन सकती हैं।96 प्रदक्षिणा किसलिए? जैन धर्म की मूर्तिपूजक आम्नाय में किसी भी प्रकार के व्रत ग्रहण का प्रसंग हो, समवसरण (जिनबिम्ब) की पूजा और उसकी प्रदक्षिणा ये दोनों कृत्य प्रमुख रूप से किये जाते हैं। प्रदक्षिणा के माध्यम से यह प्रार्थना की जाती है कि इस व्रताचरण के द्वारा रत्नत्रय की उपलब्धि हो, चूंकि साधना की समग्रता इसी में है। यह ध्यातव्य है कि पूर्वकाल में जिनालय के बाहरी मण्डप में व्याख्यानादि
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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