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________________ 86... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के ...... बोधवृद्धि - दीक्षित व्यक्ति द्वारा प्रायः विहित आचार का पालन किए जाने से सभी कर्मों का क्षयोपशम एवं ज्ञानावरण आदि घाति कर्मों का नाश होता है, जिससे नियमतः ज्ञान में वृद्धि होती है । गुरुभक्तिवृद्धि - संयमी चिन्तन करता है कि दीक्षा इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण सम्पदा का हेतु है और इस दीक्षा सम्बन्धी आचार का पालन गुरु की सहायता से ही सम्भव हुआ है इसलिए गुरु महान है और उसकी भक्ति करना उचित है - इस प्रकार का ज्ञान होने से गुरुभक्ति में भी वृद्धि होती है। साक्षात फल इस प्रकार क्रमशः गुणों की वृद्धि होने से दीक्षित जीव का कल्याण होता है तथा उन गुणों का सम्यक् आचरण करते हुए उत्तरोत्तर अधिक शुद्ध बनकर विशिष्ट प्रकार से मुनि दीक्षा को प्राप्त कर लेता है । पारम्परिक फल - पूर्वोक्त प्रकार से सर्वविरति चारित्र को उपलब्ध कर लेने के पश्चात भूतकाल में आचरित मिथ्याचारों की निन्दा करता है, वर्तमान में उन आचारों का सेवन नहीं करने की प्रतिज्ञा करता है और भविष्य में उन आचारों के त्याग का प्रत्याख्यान करता है । इस तरह वह जीव उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त होता हुआ अन्त में सभी कर्मों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। - आगम के अनुसार दीक्षा विधि का चिन्तन करने से भी व्यक्ति सकृद्बन्धक और अपुनर्बन्धक कदाग्रह का त्यागी हो जाता है। जो जीव यथाप्रवृत्तिकरण प्राप्त कर चुका हो, लेकिन ग्रन्थि - भेद नहीं किया हो और एक बार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध कर सकता हो, वह सकृद्बन्धक कहलाता है तथा जिसने यथाप्रवृत्तिकरण प्राप्त कर लिया हो, ग्रन्थि-भेद भी कर लिया हो और उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं करने वाला हो, वह अपुनर्बन्धक कहलाता है। निष्कर्ष रूप में दीक्षा मोक्ष का पारम्परिक कारण है। यह संसार से मोक्ष की यात्रा का अविराम पथ है। दीक्षा के लिए अनुमति आवश्यक क्यों ? प्रव्रज्या स्वीकार हेतु दीक्षार्थी के लिए माता-पिता या अन्य अभिभावक गण की अनुज्ञा प्राप्त करना आवश्यक माना गया है। जैन परम्परा में माता-पिता आदि की अनुमति प्राप्त होने के पश्चात ही दीक्षा प्रदान की जाती है। इतिहास के पृष्ठों पर अनेक ऐसे उदाहरण अंकित हैं जिन्होंने अपने
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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