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________________ प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 83 देवलोक के देवों, दस माह की पर्यायवाला नौवें-दसवें-ग्यारहवें-बारहवें (आनत, प्राणत, आरण, अच्युत) देवलोक के देवों, ग्यारह मास की पर्यायवाला नव ग्रैवेयक देवों और बारह मास तक चारित्र का पालन करने वाला मुनि पाँच अनुत्तरवासी देवों के सुख से भी अधिक सुखी है।52 यह सुख विशुद्ध चारित्र का पालन करने वाले एवं आत्मिक आनन्द की अनुभूति करने वाले साधकों की अपेक्षा उल्लिखित है। बारह महीने के अनन्तर अखण्ड चारित्र का पालन करने वाला मुनि अनन्त कर्म मलों को दूर करके सिद्ध-बुद्ध बन जाता है और मोक्ष रूपी सर्वोत्तम स्थान को पा लेता है। __ जैन विचारणा में आत्मिक सुख को अनुभूतिगम्य माना है। वह अभिव्यक्ति का माध्यम बन ही नहीं सकता तथा आत्मिक सुख को संसार के किसी वैभव से न उपमित किया जा सकता है और न किसी वस्तु से उसकी तुलना की जा सकती है। यह आनन्द स्वानुभूत, अविचल और अविनाशी है। इन आत्मिक सुखों की सम्प्राप्ति के लिए ही तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, बलदेव, राजकुमार, श्रेष्ठीजन आदि अपार वैभव एवं सुख-सुविधाओं का मार्ग छोड़कर संयम का कठोर पथ अपनाते हैं। देवलोक के अतुलनीय वैभव के बीच रहने वाले सम्यग्दृष्टि आदि देव संयम धर्म को अपनाने की आकांक्षा रखते हैं। निष्कर्ष रूप में दीक्षावस्था स्व-रमण की उत्कृष्ट भूमिका है। स्व-स्वभाव उपलब्धि का श्रेयस् मार्ग है। स्वोत्कर्ष की साधना का प्रमुख केन्द्र है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में दीक्षा संस्कार की उपयोगिता वर्तमान के भोगवादी युग में दीक्षा एक विकास विरोधी क्रिया प्रतिभासित होती है, परन्तु यदि इसके हार्द को समझ लिया जाए तो हमारी सोच गलत साबित होगी। भारत जैसे आध्यात्मिक देश में तप-त्याग की संस्कृति पूर्व से ही रही है। जैन दीक्षा की प्रासंगिकता के विषय में चिन्तन करें तो निम्न तथ्य उजागर होते हैं। __मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनन किया जाए तो, जैन दीक्षा ग्रहण का अर्थ है जीवन परिवर्तन। साधक पूर्व जीवन का त्यागकर नूतन जीवन को अंगीकार करता है, जहाँ पर नये लोग, नया वातावरण एवं जीने का एक नया तरीका होता है। यह सब जीवन उत्साह में वृद्धि करते हैं। जीवन में तप-त्याग एवं नियन्त्रण आने से मनःस्थिति सन्तुलित बनती है। अहिंसा आदि पांच महाव्रतों
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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