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________________ xii... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के ..... को महाव्रत एवं गृहस्थ के व्रतों को अणुव्रत कहा जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह इन पाँच व्रतों का अपवाद रहित पूर्ण रूपेण पालन महाव्रत कहलाता है । छेदोपस्थापनीय चारित्र के रूप में तीन करण एवं तीन योग द्वारा इन व्रतों का पालन करने की प्रतिज्ञा की जाती है। साधक के द्वारा इन महाव्रतों का अधिग्रहण ही व्रतारोपण कहलाता है । प्रस्तुत शोध ग्रन्थ में इस विधि प्रक्रिया का क्रमिक वर्णन किया गया है। इसी के साथ महाव्रतों में दृढ़ता एवं आचरण शुद्धता के लिए पूर्व भूमिका रूप सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण विधि का उल्लेख है । तदनन्तर संयम जीवन सम्बन्धी विविध विधानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। साध्वीजी ने दीक्षा सम्बन्धी विविध पहलुओं एवं जन सामान्य में प्रसरित अनेक भ्रान्त मान्यताओं का भी इसमें निराकरण किया है। गूढ़ अन्वेषी साध्वी सौम्यगुणाश्रीजी ने आगमिक एवं परवर्ती ग्रन्थों के आधार पर इस प्रक्रिया का वर्णन किया है। यद्यपि यह प्रक्रिया आज भी यथावत प्रचलित है, परन्तु उसमें निहित सूक्ष्म तथ्यों से प्रायः आज का जन जीवन अनभिज्ञ हैं । साध्वीजी ने आगमिक रहस्यों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हुए युवा एवं भौतिकतावादी वर्ग को सम्यक समाधान दिया है। इस कृति में उद्घाटित रहस्यों के माध्यम से साधक वर्ग संयम साधना के सूक्ष्म तथ्यों से अवगत हो पाएं एवं उनकी आत्म रमणता में अनुरक्ति बढ़े तो ही इस कृति की सार्थकता होगी। मैं साध्वीजी के इन प्रयासों की अंत:करण पूर्वक अनुमोदना और अनुशंसा करता हूँ। इसी के साथ आशा करता हूँ कि सौम्यगुणाजी भविष्य में भी इसी प्रकार श्रुत सेवा में संलग्न रहेगी। आज के भोगवादी युग में जैन योग की विचारणा एक सम्यक मार्गदर्शक है परन्तु आवश्यकता है उसे समाज के संदर्भों में प्रस्तुत करने की। साध्वीजी अपनी ज्ञान रुचि, अनुवाद क्षमता एवं अनुभव के आधार पर जैन श्रुत साहित्य का नवीनीकरण कर समाज को एक नई दिशा प्रदान कर सकती है। अंत में यही कामना करता हूँ कि साध्वीजी अपनी गुरुवर्य्या सज्जन श्रीजी म.सा. के मार्ग का अनुकरण करते हुए जैन श्रुत सागर के रत्नों से जैन समाज को समृद्ध करें। यह कृति श्रमण संघ में निर्दोष आचरण की प्रक्रिया को सतत प्रवाहमान रखें, यही अंतर प्रार्थना । डॉ. सागरमल जैन प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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