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________________ 56... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के ..... 11. सकल संघ के प्रति वात्सल्य भाव जो सूत्र रूप और संघ रूप प्रवचन के प्रति वात्सल्य भाव रखने वाला हो । वात्सल्य भाव के बिना श्रीसंघ का उपकार नहीं हो सकता है। 12. सर्वसत्त्व हितान्वेषी संसार के समस्त प्राणियों का हित चाहने वाला हो। 13. आदेय - जिसका वचन सभी के लिए आदरणीय हो । 14. अनुवर्त्तक - अलग-अलग स्वभाव वाले शिष्यों के अनुकूल बनकर उन्हें सन्मार्ग का अनुसरण कराने वाला हो । 15. गम्भीर - गम्भीर और उदारचित्त वाला हो । 16. अविषादी - किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों के उपस्थित होने पर खिन्न होने वाला न हो, शरीर रक्षण आदि के लिए दीनभाव वाला न हो। - - - 17. उपशमलब्धिवान् - अन्य को उपशान्त करने की सामर्थ्य वाला हो। इसी के साथ उपकरणलब्धि अर्थात संयम में उपकारक पात्रादि वस्तुएँ प्राप्त करने की शक्ति वाला और जिसको व्रत - नियमादि दें, वह स्थिर चित्त से उन नियमादि का पालन कर सके, ऐसी लब्धियों से युक्त हो । 18. सूत्रार्थभाषक आगम के अर्थ का सम्यक् प्रतिपादन करने वाला हो और शिष्य को सूत्र अर्थ की वाचना देने में समर्थ हो । 19. स्वगुर्वनुज्ञात गुरुपद - स्वयं के गुरु के द्वारा गुरुपद पर स्थापित किया हुआ हो। इन 19 गुणों से युक्त गुरु ही दीक्षा प्रदान करने में समर्थ होते हैं। किसी में काल दोष के प्रभाव से सर्वगुण सम्पन्नता न भी हों, परन्तु मुख्य गुणों से युक्त हो, तो वह गुरु भी दीक्षा के लिए योग्य कहा गया है। दीक्षादाता गुरु की योग्यता के विषय में अपवाद पंचवस्तुक में कहा गया है कि इस कलयुग के दुष्प्रभाव से कोई गुरु उक्त गुणों से सम्पन्न न भी हों तो भी वह गुरु निम्नोक्त गुणों से युक्त होना चाहिए। ये गुण अपवाद रूप में स्वीकार किये गये हैं। 1. गीतार्थ - सूत्र और अर्थ को जानने वाला हो । 2. कृतयोगी - साधु के आचारों का पालन करने वाला हो ।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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