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________________ 52...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के..... __ इसी तथ्य को उजागर करते हुए प्रभु महावीर ने स्थानांगसूत्र में कहा है कि व्यक्ति अपने माता-पिता को शरीर की चमड़ी के जूते बनाकर भी पहना दे तो वह उनके उपकारों से उऋण नहीं हो सकता, किन्तु उनको यदि धर्म मार्ग का पथिक बना दें, वीतराग वाणी का रसिक बना दें तो वह माता-पिता के उपकारों से ऋण मुक्त हो सकता है। अतएव मोह-मायाबद्ध गृहस्थ जीवन में विशिष्ट लाभ की सम्प्राप्ति नहीं हो सकती। इस पर कई प्रश्न करते हैं कि 'फिर कई लोगों ने गृहस्थ में रहकर भी सिद्धावस्था को सम्प्राप्त किया तो वह कैसे सङ्गत होगा ? प्रश्न बड़ा अच्छा है। समाधान भी सरल है कि जो आत्माएँ गृहस्थ में रहकर मर्यादित और न्याय-नीति से त्याग-प्रत्याख्यान करते हुए अपने जीवन में अनासक्त रहकर साधना करती हैं, वे अपने जीवन में सिद्धावस्था जैसी श्रेष्ठ दशा भी प्राप्त कर लेती हैं। लेकिन ऐसी स्थिति अत्यल्प गृहस्थों में देखी जाती है। अतएव ऐसा बहुत कम सम्भव होने से दीक्षा ही सर्वश्रेष्ठ मुक्ति का साधन है। जो लोग दीक्षा को आकर्षण-हीन मानते हैं उनका कथन अप्रामाणिक है। क्योंकि उन्होंने केवल भौतिकता में ही आनन्द मान लिया है। उन्हें कभी आत्मिक आनन्दानुभूति नहीं हुई। वे गूढ़ रहस्य से अनभिज्ञ दीक्षा को आकर्षणहीन मानते हैं। वस्तुतः दीक्षा आनन्द का वह खजाना है, जिसको सम्प्राप्त कर मनुष्य आनन्द की चरम सीमा तक पहुँच सकता है। दीक्षार्थी दीक्षा धारण कर लोक से विमुख नहीं हो जाता, अपितु लोक से ऊपर उठकर भ्रमित जन-समुदाय को दिशा-बोध देता है। वह धर्म से विमुख जनों को कल्याण के सम्मुख ले जाता है। ___ कुछ लोग अर्थहीनता को दीक्षा का कारण स्वीकार करते हैं, उनकी भ्रान्त धारणा निराधार और सर्वथा अप्रामाणिक है। आप स्वयं देखते हैं कि कितने ही भूखे, नंगे, गरीबी से परिपूर्ण जीवन जीने वाले फुटपाथ पर रहने वाले लोग अपना सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार से गुजार देते हैं। किन्तु कोई उन्हें यदि त्याग की बात सुनाये तो उसको वे स्वीकार नहीं करते। यदि आप उन्हें एक रात्रि के लिए भोजन त्याग करने की बात कहें तो वे उसे स्वीकार नहीं करेंगे। त्यागी की परिभाषा देते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है जे य कन्ते पिए भोए, लद्धे वि पिट्टि कुव्वई । साहीणे चयइ भोए, से हु 'चाइ' ति वुच्चई ।।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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