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________________ xivili... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... आता है। सम्यग्दर्शन का सामान्य अर्थ-श्रद्धा है। भौतिक क्षेत्र में जो महत्त्व ऊर्जा का है, ठीक वही भूमिका आध्यात्मिक क्षेत्र में श्रद्धा निभाती है। यह चेतना को उत्कृष्टता के ढांचे में ढाल सकने वाली कारगर भट्टी है। श्रद्धाविहीन आत्मोत्कर्ष के मार्ग पर एक कदम भी नहीं चल सकता है। वह पक्षाघात पीड़ित की तरह कुछ कदम चलकर ही लड़खड़ाता हुआ धड़ाम से नीचे गिर जाता है। श्रद्धा ही वह आश्रयस्थल है जिसके सहारे आत्मचेतना को चरम ऊँचाईयों तक पहुँचाया जा सकता है। अध्यात्म क्षेत्र के जितने भी चमत्कार हैं, सब कुछ श्रद्धा की ही परिणतियाँ हैं। श्रद्धा के बल से ही पाषाण की प्रतिमा में भगवद् स्वरूप का बोध होता है और वैसा ही प्रतिफल उपलब्ध किया जाता है। श्रद्धा के अभाव में आत्म तत्त्व को परमात्म सत्ता के साथ जोड़ सकना भी असम्भव है अत: आत्मविकास की दिशा में बढ़ने वाले के लिए श्रद्धा का अवलम्बन अनिवार्य है। इसके बिना कुछ भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं की जा सकती है। सम्यग्दर्शन व्रत का स्वीकार सद्गुण रूपी बीज का आधान है। जब कुछ बोया जाएगा तभी कुछ पाया जा सकेगा। इसलिए सर्वप्रथम सम्यक्त्वव्रतारोपण-विधि प्रस्तुत की गई है। ___इसके अनन्तर क्रमश: बारहव्रत, सामायिकव्रत, पौषधव्रत, उपधानतप और उपासक प्रतिमा संबंधी विधि-विधानों का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। इस क्रमिकता का भी एक उद्देश्य है। जब श्रद्धा बलवती बनती है तभी साधक आंशिक व्रत स्वीकार कर सकता है। सम्यक्त्व श्रद्धा रूप व्रत है। इस व्रत पालन में “अष्ट कर्मों से रहित अरिहंत ही मेरे देव हैं, निर्ग्रन्थ साधु ही मेरे गुरू हैं और अहिंसा ही मेरा धर्म है" इस प्रकार की आस्था में दृढ़ रहना होता है, जबकि इसके अग्रिम चरण में व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों का आंशिक रूप से परिपालन करने की प्रतिज्ञा स्वीकार करता है अत: तीसरे क्रम पर बारहव्रतारोपण विधि वर्णित की है। इसे देशविरतिचारित्र भी कहते हैं। __कदाचित देशविरति चारित्र का पालन करते हुए सर्वविरति चारित्र अंगीकार करने की भावना उत्पन्न हो जाए तो उसके अभ्यास रूप छह माह तक उभय सन्ध्याओं में सामायिकव्रत स्वीकार करना चाहिए। सामायिक आत्मा का मूल धर्म है एतदर्थ चतुर्थ क्रम पर सामायिकव्रतारोपण-विधि कही गई है। धर्म के मुख्य दो अंग हैं-श्रुत और चरित्र। सम्यग्दर्शन और सम्यगज्ञान श्रुतधर्मरूप हैं तथा श्रमण एवं श्रावक के मूलगुण और उत्तरगुण चारित्रधर्म रूप
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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