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________________ 432... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... उपासक कौपीन(लंगोटी) के अतिरिक्त सभी प्रकार के वस्त्रों का परित्यागी होता है। इसकी चर्या मनि जीवन के अति निकट होती है। यह मुनियों की तरह खड़ेखड़े भोजन करता है, केशलुंचन करवाता है तथा एक कमण्डलु और मोरपिच्छी रखता है। यह दिगम्बर-मुनि से केवल एक बात में ही भिन्न होता है कि वह अपने गुह्यांग को ढंकने के लिए लंगोटी रखता है जबकि दिगम्बर मुनि सर्वथा नग्न रहते हैं।40 उक्त दोनों विभागों के सम्बन्ध में दिगम्बर आचार्य एकमत नहीं हैं। कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, कार्तिकेय, सोमदेव, अमितगति आदि कई आचार्यों ने ग्यारहवीं प्रतिमा के दो भेद नहीं किए हैं। इसके सिवाय ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक के लिए आचार्य सकलकीर्ति ने केवल मुहर्त्त-प्रमाण निद्रा लेने का उल्लेख किया है।41 लाटीसंहिता42 में क्षुल्लक के लिए कांस्य या लोहपात्र में भिक्षा लेने का विधान है, तो सकलकीर्ति43 ने कमण्डल और थाली रखने का विधान किया है। तुलनात्मक दृष्टि से विवेचन करने पर यह अवस्था वैदिक परम्परा के वानप्रस्थाश्रम और बौद्धपरम्परा के श्रामणेरजीवन के समकक्ष प्रतीत होती है। जिस प्रकार वैदिक-परम्परा में वानप्रस्थ और बौद्ध परम्परा में श्रामणेर का जीवन संन्यास या उपसंपदा की पूर्व भूमिका रूप है, उसी प्रकार जैन-परम्परा की श्रमणभूत प्रतिमा भी श्रमण जीवन की पूर्व भूमिका स्वरूप है। समाहार रूप में कहा जा सकता है कि ये प्रतिमाएँ व्यक्तिगत जीवन के चारित्रिक विकास में परम सहयोगी बनती है। प्रतिमा ग्रहण करते रहने से व्यक्ति का आचार उन्नत एवं विकासोन्मुख होता जाता है और ग्यारहवीं प्रतिमा तक पहुँचते-पहुँचते श्रावक के आचरण में इतनी पवित्रता आ जाती है कि वह श्रमणतुल्य हो जाता है। प्रतिमाओं का वर्गीकरण दिगम्बर आचार्यों ने प्रतिमाधारी श्रावक को तीन भागों में वर्गीकृत किया है- 1. गृहस्थ 2. वर्णी-ब्रह्मचारी और 3. भिक्षु।44 पहली से लेकर छठवीं तक के प्रतिमाधारियों को गृहस्थ, सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमाधारी को वर्णी तथा अन्तिम दो प्रतिमाधारियों को भिक्षु की संज्ञा दी गई है।45 कुछ आचार्यों ने इन्हें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट श्रावक की संज्ञा से भी अभिहित
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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