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________________ पौषधव्रत विधि का सामयिक अध्ययन ...287 ‘शक्रस्तव' का पाठ बोलें, यह मूलविधि है।48 अभी प्रचलन में शक्रस्तव के स्थान पर अपनी-अपनी परम्परानुसार 'जयउसामिय' आदि जो भी सूत्रपाठ प्रचलित हैं, वह बोलते हैं। इसी के साथ 'जंकिंचि' से लेकर 'जयवीयरायसूत्र' तक के सभी पाठ बोलते हैं। ज्ञातव्य है कि विक्रम की 14 वीं शती तक चैत्यवन्दन-विधि के रूप में लगभग ‘शक्रस्तव' ही बोला जाता था, अन्य प्रकार के चैत्यवन्दनसूत्र पन्द्रहवीं शती के बाद प्रचलन में आए हैं। ___ यह चैत्यवंदनविधि उपवास आदि तप में पानी पीने वाले सभी आराधकों के लिए भी आवश्यक कही गई है। जो उपवास तप में पानी नहीं पीते हैं, उनके लिए यह विधि जरूरी नहीं है। यह विधि-प्रक्रिया श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के मुनियों के लिए भी आवश्यक कृत्य के रूप में मानी गई है। जब भी नवकारसी, बीयासणा या एकासन आदि के लिए प्रत्याख्यान पारते हैं, तब आहार के तुरन्त बाद चैत्यवन्दन-विधि करते हैं। यह विधि स्थानक आदि परम्पराओं में प्रचलित नहीं है। स्थंडिलगमन एवं आलोचना विधि ____ पौषधव्रती या उपधानवाही को शरीर चिंता (मलविसर्जन-क्रिया) से निवृत्त होना हो, तब साधुचर्या की भाँति अप्रमत्त होकर निर्जीव स्थंडिलभूमि में जाएं। जिस भू-भाग पर मल विसर्जित करना हो, वहाँ 'अणुजाणह जस्सावग्गहो' अर्थात जो इस स्थान का स्वामी हो, वह हमें इस स्थान के उपयोग करने की अनुमति दें (यह अनुमति उस स्थान के अधिष्ठायक क्षेत्रदेवता से ली जाती है)-ऐसा बोलकर तथा दिशा-पवन-गाँव आदि के नियमों का ध्यान रखते हुए बड़ी नीति (मलविसर्जन) की शंका दूर करें। फिर प्रासुकजल से गुह्यांग को आचमित (प्रक्षालित) करें। __यहाँ ध्यातव्य है कि वर्तमान में निर्जीव स्थंडिलभूमि न मिलने के कारण संडास आदि दोषकारी साधनों का उपयोग अवश्य करते हैं, किन्तु यह अविधि है। जैन-विधि के अनुसार जहाँ तक हो, पौषधव्रती को शौचालय या स्नानगृह का उपयोग नहीं करना चाहिए और यही उत्सर्ग मार्ग है। ___ शारीरिक शुद्धि करने के बाद पौषधव्रती “निसीहि' शब्दपूर्वक
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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