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________________ 202... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... जूता नहीं पहना जाता है। गोभिल के अनुसार मेखला धारण, भिक्षा प्राप्त भोजन, दण्डग्रहण, प्रतिदिन स्नान, समिधा-अर्पण, गुरूवन्दन आदि कृत्य सभी व्रतों में किए जाते हैं। गोदानिकव्रत से सामवेद के पूर्वार्चिक का आरम्भ किया जाता था। इसी प्रकार वातिक से आरण्यक का, आदित्य से शुक्रिया का, औपनिषद् से उपनिषद्ब्राह्मण एवं ज्येष्ठ-सामिक से आज्य-दोह का आरम्भ किया जाता था। यदि कोई विद्यार्थी विशिष्ट व्रतों को नहीं करता, तो उसे प्राजापत्य नामक तप तीन, छ: या बारह बार करके प्रायश्चित्त करना पड़ता था। यदि ब्रह्मचारी नित्यक्रम के कर्त्तव्याचार में गड़बड़ी करता अथवा शौच, आचमन, प्रार्थना, भिक्षा, छत्रवर्जन आदि नियमों का यथावत् परिपालन न करता, तो उसे तीन कच्छों का प्रायश्चित्त दिया जाता था। इस प्रकार वेदव्रतों का अनुसरण अनिवार्य एवं अपरिहार्य स्थिति के रूप में किया जाता था। इससे वैदिक मत में व्रत विचारणा की पष्टि निर्विवादत: सिद्ध होती है। आज के समय में यह व्रत व्यवस्था विलुप्त नजर आती है। यदि हिन्दू का सर्वमान्य ग्रन्थ गीता का अध्ययन करें, तो उसमें जैनपरम्परातुल्य गृहस्थ साधक के व्रतों का स्पष्ट वर्णन तो उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का सामान्य निर्देश अवश्य दृष्टिगत होता है। गीता में मात्र सद्गुणों के रूप में उनका उल्लेख किया गया है। वह इन्हें सैद्धान्तिक रूप में ही स्वीकारती है, व्यावहारिक-रूप में नहीं।141 __डॉ. सागरमलजी जैन के अभिमतानुसार जैन गृहस्थ के सात शिक्षाव्रतों के पीछे जिस अनासक्ति की भावना के विकास का दृष्टिकोण है, वही अनासक्तवृत्ति गीता का मूल उद्देश्य है। जैन साधना में वर्णित सामायिक व्रत की तुलना गीता के ध्यान-योग के साथ की जा सकती है। इसी प्रकार अतिथिसंविभागवत का उल्लेख भी गीता में उपलब्ध हो जाता है। उसमें दान गृहस्थ का आवश्यक कर्तव्य माना गया है। महाभारत का अवलोकन करें, तो उसमें गृहस्थ-धर्म के सम्बन्ध में ऐसे अनेक निर्देश हैं, जो जैन अचार में वर्णित गृहस्थ-धर्म के बारहव्रत से साम्य रखते हैं।142 इस वर्णन से फलित होता है कि वैदिक विचारणा में भी न्यूनाधिक रूप से बारहव्रत का विवेचन मिल जाता है। बौद्ध परम्परा में बारहव्रत के नाम से तो कोई उल्लेख नहीं मिलता है,
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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