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________________ बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...191 और विशेष धर्म की चर्चा प्राप्त होती है। इसमें श्रावक बनने के पूर्व गृहस्थ को मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों से युक्त होना आवश्यक माना है। इन्हीं के द्वारा रचित श्रावकधर्मविधि प्रकरण, श्रावक प्रज्ञप्ति, पंचाशक प्रकरण आदि ग्रन्थों में भी श्रावक-आचार का सम्यक् प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर जिनेश्वरसूरि (11वीं शती) कृत षट्स्थानप्रकरण उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'श्रावक वक्तव्यता' है। इसमें वृत्तपरिकर्मत्व, शीलत्व, गुणत्व, ऋजुव्यवहार, गुरूशुश्रुषा और प्रवचन कौशल्य-इन छ: स्थानों का वर्णन है। ये गुण श्रावक जीवन के लिए आवश्यक माने गए हैं। इसी क्रम में देवेन्द्रसूरि (14वीं शती) कृत श्राद्धदिनकृत्य, जिनमण्डनगणि (15 वीं शती) रचित श्राद्धगुण विवरण, रत्नशेखरसूरि (15वीं शती) कृत श्राद्धविधि आदि ग्रन्थ दृष्टिगत होते हैं। इनमें श्रावक का अर्थ, श्रावक के आवश्यक गुण, श्रावक के कर्त्तव्य, श्रावक की चर्या आदि विषयों का निरूपण हैं, किन्तु व्रत ग्रहण सम्बन्धी विधि-विधान की कोई चर्चा नहीं की गई है। कुछ ग्रन्थों में बारहव्रतों का कथानक आदि के माध्यम से विश्लेषण किया गया है। देवभद्रसूरि ने कथाकोश में, देवगुप्तसूरि ने नवपदप्रकरण टीका में, आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में कहीं विस्तृत, तो कहीं संक्षेप में श्रावकधर्म पर चिन्तन किया है और उन्हीं ग्रन्थों के आधार से हिन्दी और गुजराती में भी अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। ___ दिगम्बर-परम्परा में श्रावक के आचार धर्म पर चिन्तन करने वाले सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द हुए हैं। उनके द्वारा चारित्रप्राभृत (गा.-20 से 25) में केवल छ: गाथाओं द्वारा श्रावक-धर्म का वर्णन किया गया है। इसमें ग्यारह प्रतिमा, बारहव्रत आदि के नाम ही बताए हैं। उनके रयणसार ग्रन्थ में भी श्रावकाचार का सुन्दर निरूपण हुआ है। __तदनन्तर स्वामी कार्तिकेय (5वीं शती) रचित अनुप्रेक्षा ग्रन्थ में गृहस्थ धर्म के बारह भेद प्राप्त होते हैं। इन बारह नामों में ग्यारह नाम प्रतिमाओं के हैं। स्वामी समंतभद्र (4-5वीं शती) रचित रत्नकरण्डकश्रावकाचार में सम्यग्दर्शन, बारहव्रत, आठमूलगुण एवं ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन हआ है। आचार्य जिनसेन (8वीं-9वीं शती) के आदिपुराण में पक्ष, चर्या और साधना के रूप में श्रावक धर्म का प्रतिपादन हुआ है। इनके हरिवंशपुराण (58/77) में बारहव्रत,
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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