SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...175 2. द्रव्य- जो आहार मुनि के तप और संयम में सहायक हो वह शुद्ध द्रव्य कहलाता है। 3. दाता- जिसके हृदय में भक्ति की भावना बह रही हो, वह दाता कहलाता 4. पात्र- जिसके जीवन में यम-नियम-संयम की गंगा बह रही हो, वह पात्र ____ कहा गया है।103 उक्त चारों प्रकारों से शुद्धतापूर्वक दान देना चाहिए। यही शुद्ध, श्रेष्ठ और उत्तम दान है। अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार- इस व्रत में पाँच प्रकार के दोष लगते हैं 1041. सचित्त निक्षेपण- दान न देने की भावना से प्रासुक आहार के ऊपर सचित्त-वस्तुओं का निक्षेप करना, ताकि साधु उस आहार को ग्रहण न कर सके। 2. सचित्त पिधान- दान न देने की बुद्धि से अचित्त वस्तु के ऊपर सचित्त वस्तु ढक देना। 3. कालातिक्रम- भिक्षाग्रहण का समय बीत जाने पर भोजनादि खाद्य-सामग्री तैयार करना। 4. परव्यपदेश- दान देने की इच्छा न होने पर अपनी वस्तु को दूसरों की बताना। 5. मत्सरता- ईर्ष्या एवं अहंकार की भावना से दान देना। ___ इन अतिचारों में लोभ, अहंकार, ईर्ष्या और द्वेषवृत्ति रही हुई है, जिससे श्रावक का व्रत दूषित या खण्डित होता है अत: व्रतधारी श्रावक को इन दोषों से बचकर रहना चाहिए। ____ अतिथिसंविभाग व्रत की उपादेयता- यह व्रत गृहस्थ के सामाजिकदायित्व का सूचक है। इसमें व्रतधारी श्रावक स्व की भावना से ऊपर उठकर परकल्याण के बारे में विचार करता है। इस व्रत के परिपालन से सेवा, दान, करूणा का भाव जागृत होता है। इस व्रत के माध्यम से गृहस्थ एवं श्रमण वर्ग के पारस्परिक सहयोग के रूप में गृहस्थ उपासक के महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्यों की सीमा अपने और अपने परिजनों की पूर्ति तक ही नहीं, वरन् नि:स्वार्थ-भाव से समाज
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy