SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 142... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... 4. सापेक्ष हिंसा- शरीर रक्षा, आत्मा रक्षा एवं आश्रितों की रक्षा के निमित्त की जाने वाली हिंसा सापेक्ष हिंसा है। कई बार गृहस्थ को न चाहते हुए भी निरपराधी जीवों की हिंसा करनी पड़ती है। जैसे- धान्य में पड़ने वाले कीड़े, पालतू जानवरों को त्रस्त करने वाले परजीवी चिचड़े आदि, लूँ, लीख, खटमल आदि से भी रक्षा करने के लिए इनका अतिपात करना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार की हिंसा सकारण या सापेक्ष होती है, जो गृहस्थ के लिए अपरिहार्य होते हुए भी विवेक की अपेक्षा रखती है। व्रती श्रावक को इस हिंसा के विषय में यह विवेक रखना चाहिए कि वह जॅ, लीख, आदि जीवों का विसर्जन उस प्रकार से करें कि उन्हें त्रास न पहुँचे अन्यथा अहिंसा व्रत में दोष लगता है। उक्त चार प्रकार की हिंसाओं में गृहस्थ के लिए संकल्पयुक्त त्रस प्राणियों की हिंसा का निषेध किया गया है। यह स्मरण रहे कि कई बार व्रती साधक हिंसा करता नहीं है, फिर भी हिंसा हो जाती है। इससे व्रती का व्रत भंग नहीं होता, क्योंकि गृहस्थ साधक की जाने वाली हिंसा का त्यागी होता है, लेकिन हो जाने वाली हिंसा का त्यागी नहीं होता है। अहिंसाव्रत के दो आगार- अहिंसाव्रत के सम्बन्ध में यह समझ लेना अनिवार्य है कि श्रमण और श्रावक दोनों अहिंसाव्रत का पालन करते हैं, परन्तु उनमें एक बात का और भी अन्तर है। जैन दृष्टि से पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि और वनस्पति में जीव हैं और इन्हें स्थावर कहा गया है। यह सर्वविदित है कि जैन श्रमण स्वयं के लिए भोजन नहीं पकाता है, न दूसरों के लिए प्रेरित करता है और न ही भोजन बनाने वाले की अनुमोदना कर सकता है। वह भिक्षाटन द्वारा अपने जीवन का निर्वाह करता है, किन्तु श्रावक के लिए यह बात नहीं है। वह मर्यादित रूप से प्रवृत्तियाँ भी करता है। उन प्रवृत्तियों में स्थावर- जीवों की हिंसा भी होती है। वह केवल त्रसजीवों की हिंसा (स्थूल हिंसा) का त्याग करता है, पर सांसारिक व्यवहार में फँसे होने के कारण सूक्ष्म हिंसा (स्थावर जीवों की हिंसा) का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता है, इसलिए श्रावक के अहिंसाव्रत में दो आगार रखे गए हैं- प्रथम अपराधी को दण्ड देने का और दूसरा जीवन निर्वाह के लिए सूक्ष्म हिंसा का। इन आगारों (छूट) की वजह से भी श्रावक को सागारी कहा है और आगार
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy