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________________ सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ...115 इय मिच्छाओ विरमिय, सम्मं उवगम्म भणइ गुरूपुरओ। अरहंतो निस्संगो, मम देवो दक्खिणासाहू ।। उसके बाद सम्यक्त्वव्रत ग्रहण किया हुआ श्रावक यथाशक्ति एकासन आदि-तप का प्रत्याख्यान करें। फिर गुरू को धर्मोपदेश देने का निवेदन करें। तब गुरू मनुष्य की दुर्लभता, सम्यक्त्व की महिमा अथवा पर्षदानुरूप धर्मप्रवचन करें। * उसके बाद गुरू व्रतग्राही को अभिग्रह दिलाएं। उसमें सम्यक्त्वव्रतधारी के लिए करणीय-अकरणीय कृत्यों की प्रतिज्ञा और मर्यादाएँ करवाते हैं। उस दिन सम्यक्त्वव्रतधारी को यथाशक्ति साधर्मीवात्सल्य करना चाहिए तथा सुविहित साधुओं को वस्त्रादि का दान करना चाहिए। तपागच्छ परम्परा में सम्यक्त्वव्रत-आरोपणविधि लगभग पूर्ववत् सम्पन्न की जाती है, केवल देववन्दन के सूत्रपाठों एवं स्तुतिसंख्या को लेकर भिन्नता है। इनमें चैत्यवंदन के रूप में 'ऊँ नम: पार्श्वनाथाय' का पाठ बोलते हैं, 'अरिहाणस्तोत्र' के स्थान पर 'पंचपरमेष्ठी' का स्तोत्र कहते हैं और स्तुतियों में 'अहँस्तनोतु सश्रेयः' की तीन एवं शांतिनाथ, द्वादशांगी, श्रुतदेवता, शासनदेवता, समस्त वैयावृत्यकर देवता-ऐसे कुल आठ स्तुतियाँ बोलते हैं। इनमें नंदीसूत्र के स्थान पर तीन नमस्कारमन्त्र सुनाने की भी परिपाटी है।113 ___अचलगच्छ, पायच्छंदगच्छ (मन्नागपुरीयबृहत्तपागच्छ), त्रिस्तुतिकगच्छ (सौधर्मबृहत्तपागच्छ) आदि परम्पराओं में यह विधि सामान्य अन्तर के साथ पूर्ववत् ही करवाई जाती है। हमें इस सम्बन्ध में प्रामाणिक ग्रन्थ तो देखने को नहीं मिले हैं, किन्तु अचलगच्छीय आचार्य श्रीगुणसागर सूरीश्वरजी म.सा. तथा पायच्छंदगच्छीय प्रवर्त्तिनी साध्वी श्री ऊँकारश्रीजी म.सा. से जानकारी प्राप्त कर यह लिखा गया है। __ स्थानकवासी-तेरापंथी आम्नाय में यह विधि अति संक्षेप में करवाई जाती है। हमें इस परम्परा से सम्बन्धित भी कोई कृति देखने को नहीं मिली है, किन्तु प्रचलित परम्परा के अनुसार इतना निश्चित है कि इनमें नन्दीरचना, प्रदक्षिणा, वासदान, देववन्दन आदि के विधान नहीं होते हैं।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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