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________________ 320... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन अस्थि संचयन- आश्वलायन के अनुसार अस्थि संचयन का काल मृत्यु से तेरहवाँ या पन्द्रहवाँ दिन है। 29 बौधायन ने दाह से तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन का निर्देश किया है।30 अस्थियों को एकत्रित करने एवं उनका विसर्जन करने के सम्बन्ध में बहुत-सी विधियों का उल्लेख हुआ है । आजकल दाह के दिन ही अस्थियों को संगृहीत कर गंगा जल में प्रवाहित कर देते हैं। हिन्दुओं की धारणा है - 'जिस व्यक्ति की अस्थियाँ गंगा जल में प्रवाहित करते हैं, वह ब्रह्मलोक से वापस नहीं लौटता और वह हजारों वर्षों तक स्वर्ग में निवास करता है । " शान्तिकर्म - यह विधि दुष्ट प्रभावों के निवारण और साधारण जीवन में लौटने व आवश्यक प्रवृत्तियों को प्रारम्भ करने के निमित्त की जाती है। यह विधान किस दिन, कहाँ किया जाना चाहिए? इस अवधारणा को लेकर कईं मत प्रचलित हैं। गृह्यसूत्र ने अन्त्येष्टि संस्कार से दसवाँ दिन और आश्वलायन ने पन्द्रहवाँ दिन उपयुक्त माना गया है। 31 कुछ श्मशानभूमि पर, कुछ नगर के बाहर तो कुछ शोकार्त्तं की सुविधानुसार शान्तिकर्म करने का वर्णन करते हैं। पिण्डदान - हिन्दू परम्परा में यह विधान अत्यन्त महत्त्व के साथ किया जाता है। अन्त्येष्टि विषयक पद्धतियों में यह क्रिया विशिष्ट स्थान रखती है। इस क्रिया के अन्तर्गत दाह के पश्चात् बारहवें दिन तक प्रत्येक दिन विशेष प्रयोजन के निमित्त, विशेष प्रकार का पिण्डदान किया जाता है, जैसे कि पहले दिन मृतक की क्षुधा व तृषा को तृप्त करने और उसके भावी शरीर के निर्माण के लिए एक भात का पिण्ड, पानी का घड़ा एवं अन्य खाद्य-पदार्थ दिए जाते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक दिन भिन्न-भिन्न प्रयोजन को लेकर अलग- अलग प्रकार का पिण्डदान किया जाता है। दसवें दिन सम्बन्धियों के केश, दाढ़ी, मूंछ व नख काटे जाते हैं। ग्यारहवें दिन अन्य अन्य तरह की कई विधियाँ सम्पन्न की जाती हैं। इस दिन की प्रधान क्रिया वृषोत्सर्ग अर्थात् एक सांड और एक गाय को खुला छोड़ना है। 32 सपिण्डीकरण- हिन्दुओं में ऐसा विश्वास है कि मृतक व्यक्ति की आत्मा तुरन्त और सीधी पितृलोक नहीं पहुँच जाती है। कुछ काल तक वह प्रेत के रूप में रहती है। इस अवधि में उसे विशेष पिण्ड दिए जाते हैं। फिर नियत समय के बाद सपिण्डीकरण द्वारा पितृलोक में पहुँच जाती है। इस प्रकार प्रेतात्मा को पितरों से संयुक्त करने की क्रिया सपिण्डीकरण कहलाती है। इसमें विहित
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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