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________________ 234...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन विद्यारम्भ संस्कार का अभिप्रायार्थ इस संस्कार के नाम से ही इसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इसमें दो शब्द हैं-विद्या+आरम्भ अर्थात विद्या का आरम्भ करना। विधि-विधान पूर्वक विद्याध्ययन का प्रारम्भ किया जाता है, उसे विद्यारम्भ-संस्कार कहते हैं। विद्यारम्भ के कई पर्यायवाची नाम हैं जैसे-अक्षरारम्भ, अक्षरस्वीकरण, अक्षरलेखन, लिपिसंख्यान आदि। इन नामों से यही सूचित होता है कि यह मूलत: भाषायी एवं सांस्कृतिक विवेचन से सम्बन्धित है।' विद्यारम्भ संस्कार की लौकिक आवश्यकता इस संस्कार की आवश्यकता क्या हो सकती है? इस सम्बन्ध में चर्चा करना अपेक्षित है। प्रथम तो विद्यारम्भ संस्कार की आवश्यकता को प्रमाणित करने वाला यह शास्त्र वचन-'ज्ञानेन हीना नरः पशुभिः समाना' समझने जैसा है। शास्त्रकार ने विद्याविहीन की तुलना पशु से की है। इससे सूचित होता है कि जीवन विकास के लिए शिक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। यह बात प्रत्यक्ष में भी देखते हैं कि शिक्षित व्यक्ति सर्वत्र पूजा जाता है अत: किसी भी कीमत पर शिक्षाभ्यास अवश्य करना चाहिए। ज्ञान ही मनुष्य की विशेषता है, अन्यथा अनेक कार्यों में तो वह पशुओं से भी पिछड़ा हुआ है। हाथी के समान बलवान्, सिंह की तरह पराक्रमी, घोड़े की भाँति चलने वाला, बैल की तरह परिश्रमी, कुत्ते की तरह गन्ध-ज्ञानी, बन्दर की तरह वृक्षारोही, गौ की तरह सौम्य, भला कौन मनुष्य हो सकता है? इन दृष्टियों से मनुष्य की अपेक्षा पशु ही अधिक बढ़े-चढ़े होते हैं। उनकी तुलना में मनुष्य की जो विशेषता है, वह उसकी ज्ञान शक्ति है, किन्तु ज्ञान शक्ति का उपयोग हो, यह और भी अधिक जरूरी है। मानवोचित प्रगति के लिए ज्ञान की पूर्णता(विकास) होना एक अनिवार्य शर्त है अन्यथा जीवन-विकास के सभी द्वार बन्द हो जाते हैं। विद्या ज्ञान की आधारशिला है। इस संस्कार की आवश्यकता का एक अन्य कारण यह है कि 'ज्ञानात् मुक्ति' सूत्र के अनुसार दुःखों और क्लेशों से छुटकारा केवल ज्ञानवान को ही मिल सकता है, अज्ञानी तो सांसारिक बन्धनों में बंधा ही रहता है और कष्ट भोगता रहता है। सही मार्ग तो ज्ञान का प्रकाश होने पर ही मिल सकता है, अज्ञान के अन्धकार से मुक्ति ज्ञान के प्रकाश द्वारा ही संभव है।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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