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________________ 182...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक भी हैं। विदेहक्षेत्र में ब्राह्मण-वर्ण नहीं है, किन्तु भरतक्षेत्र में भरत चक्रवर्ती ने उसकी स्थापना की थी। यदि उस प्रकरण को आद्योपान्त देखें, तो यह निश्चय होता है कि भरत महाराज ने व्रती जीवों को ही ब्राह्मण कहा और व्रती होने के चिह्न स्वरूप ही यज्ञोपवीत दिया था। इससे निश्चित हो जाता है कि यज्ञोपवीत धारण करने की परम्परा न केवल इस अवसर्पिणी काल के भरतक्षेत्र में ही विद्यमान है, अपितु विदेहक्षेत्र में भी ये संस्कार होते रहते हैं। उत्तरपुराण में इसका प्रमाण इस प्रकार देखने को मिलता है अपराजित का जीव जो इन्द्र हुआ था, वह पहले च्युत हुआ और इसी जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र के रत्नसंचय नामक नगर में राजा क्षेमंकर की कनकचित्रा नाम की रानी से मेघ की बिजली के प्रकाश के समान वज्रायुध नाम का पुत्र हुआ। जब यह उत्पन्न हुआ था, तब आधान, प्रीति, सुप्रीति, धृति, मोह, प्रियोद्भव आदि क्रियाएँ की गई थीं' अर्थात वज्रायुध के लिए गर्भाधान आदि संस्कार किए गए थे।20 आदिपुराण का निम्न उद्धरण भी दृष्टव्य है'श्रीपाल महाराजा अपने विचार प्रकट करते हैं कि मैने यज्ञोपवीत धारण किया है और गुरु के द्वारा व्रत ग्रहण किए हैं, अब मैं गुरुजनों से प्राप्त विवाहिता स्त्री को छोड़कर अन्य स्त्री को कदापि स्वीकार नहीं करूंगा।'21 उत्तरपुराण का यह पाठ भी अवलोकनीय है- श्री घनरथ तीर्थंकर ने श्रावकों के हित के लिए सम्यग्दर्शन को विशुद्ध करने वाली गर्भाधानादि समस्त संस्कार क्रियाओं का उपदेश दिया और यह भी बतलाया कि ये क्रियाएँ (संस्कार) अनादि निधन हैं।22 इस प्रकार सिद्ध होता है कि विदेहक्षेत्र में यज्ञोपवीत आदि संस्कारों की प्रवृत्ति निरन्तर विद्यमान रहती है। आदिपुराण में वर्णित उद्धरण से यह भी स्पष्ट होता है कि विदेहक्षेत्र में भी विवाह आदि कृत्य गुरु एवं स्वजन आदि ही सम्पन्न करते हैं, वहाँ स्वच्छंदता का कोई स्थान नहीं है। उपनयन संस्कार की प्राचीनता को निरूपित करते हुए श्वेताम्बरमान्य आचारदिनकर में कहा है कि इक्ष्वाकुवंश, नारदवंश, वैश्यवंश, प्राच्यवंश और औदीच्यवंश में उत्पन्न होने वाले जैन ब्राह्मण को उपनयन और जिनोपवीत धारण करना चाहिए तथा क्षत्रियवंश में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, वासुदेवों आदि को तथा श्रेयांसकुमार, दशार्णभद्र आदि राजाओं को एवं हरिवंश, इक्ष्वाकुवंश, विद्याधरवंश में उत्पन्न होने वाले व्यक्तियों को भी
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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