SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्नप्राशन संस्कार विधि का प्रायोगिक स्वरूप... 137 सुनिश्चित है कि अन्न जीवन का अभिन्न अंग है और इसके बिना जीवन को दीर्घ समय तक टिका पाना असंभव है अतः अन्न को ग्रहण करना अत्यन्त आवश्यक है। यह इस संस्कार की आवश्यकता को भी सिद्ध करता है। इस संस्कार का दूसरा प्रयोजन यह है कि प्रथम बार आहार ग्रहण करवाते समय यह भावना संप्रेषित की जाती है कि यह बालक हमेशा सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे। इसी के साथ ‘आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः' की प्रेरणा इस माध्यम से हृदयंगम कराई जाती है। नवजात शिशु को खाने योग्य पदार्थ से परिचित करवाया जाता है। उस उत्सव - आनन्द के माहौल में दिए गए संस्कार गहराई तक परिणत होते हैं। वह शिशु भी उस बात को शीघ्रता से ग्रहण करता है। साथ ही इस अवसर पर उपस्थित व्यक्तियों की भावनाओं का भी कोमल मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है अतः बालक मन को योग्य आहार से परिचित कराने एवं सात्त्विक आहार की शिक्षा देने के प्रयोजन से यह संस्कार किया जाना सर्वथा उचित प्रतीत होता है । इस संस्कार उत्सव के पीछे तीसरा कारण यह है कि ज्यों-ज्यों बालक का शारीरिक विकास होने लगता है, त्यों-त्यों शरीर पुष्टि एवं शरीरबल के लिए आवश्यक साधनों की भी जरूरतें बढ़ने लगती हैं। उनमें आहार की आवश्यकता प्रमुखतः मानी जा सकती है क्योंकि आहार ही शरीर के लिए पौष्टिक एवं बलवर्द्धक माना गया है। उसमें भी शारीरिक विकास की दृष्टि से अन्नाहार ही उपयोगी होता है। दुग्धाहार एक निश्चित अवधि तक के लिए ही कार्यकारी होता है इसीलिए वेद ग्रन्थों में अन्न की शक्ति को प्राण कहा है। इस प्रकार शारीरिक विकास हेतुभूत एवं दैहिक में पौष्टिकता को बनाए रखने के प्रयोजन से भी यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार का एक कारण यह भी उपयुक्त लगता है कि एक निश्चित समय के बाद माता के स्तनपान से दूध की मात्रा भी घटने लगती है, तब शिशु के लिए अन्य आहार की आवश्यकता स्वतः बढ़ जाती है और वह शुद्ध, सात्विक और संस्कारी आहार अन्नाहार ही हो सकता है अतः माता एवं शिशु दोनों के हितावह की दृष्टि से भी यह संस्कार नितान्त रूप से आवश्यक कहा जा सकता है। इस तरह अन्नप्राशन संस्कार के अन्य भी कई प्रयोजन एवं उद्देश्य कहे जा सकते हैं।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy