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________________ शोध प्रबन्ध सार ...13 1. जब आगम लिपिबद्ध हुए उस समय तक क्रियाओं में बाह्य आडंबर की बहुताधिकता नहीं थी। 2. उस समय में स्मृति बल तीव्रतम था और जो गुरु परम्परा से प्राप्त होता था उसका अनुकरण किया जाता था। आगमों में वैसे भी संक्षिप्त चर्चाएँ ही अधिक प्राप्त होती है। जैन शास्त्रों में विधि-विधान का विकास कब और क्यों हुआ? परवर्ती ग्रन्थों का अध्ययन करने पर विक्रम की आठवीं शती में हमें टीका ग्रंथों एवं हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों में इनका क्रमश: विकसित स्वरूप प्राप्त होता है जैसे कि पंचवस्तुक, पंचाशक प्रकरण, षोडशक प्रकरण आदि। जैसे कि आगमों में आहार चर्या के संबंध में इतना ही कहा गया है कि मुनि को निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए। अमुक-अमुक स्थानों का आहार नहीं लेना चाहिए, आहारार्थ गमन करते हुए अमुक नियमों का पालन करना चाहिए आदि। परन्तु सदोष आहार या गोचरी के दोषों की संयुक्त चर्चा सर्वप्रथम पिण्डनियुक्ति में प्राप्त होती है। दसवीं से पन्द्रहवीं शती के ग्रन्थों में विधि-विधान सम्बन्धित चर्चा का पूर्ण विकसित स्वरूप प्राप्त होता है इसके निम्न कारण हो सकते हैं विक्रम की छठी से आठवी शती के बीच हिन्दु क्रिया-काण्डों में आडंबर बढ़ गया था इसका प्रभाव जैन धर्म के अनुयायियों पर भी पड़ने लगा, कई लोग आडंबर एवं भौतिक इच्छापूर्ति हेतु उस ओर आकर्षित होने लगे थे। ऐसे में धर्म को विच्छिन्न होने से बचाने के लिए तथा गृहस्थों को अन्य धर्म की तरफ विमुख होने से बचाने के लिए गीतार्थ धर्माचार्यों द्वारा देश-काल परिस्थिति के आधार पर कुछ क्रिया काण्ड एवं आडंबर कुछ समय के लिए स्वीकार किए गए परन्तु तदनन्तर उनका बहिष्कार न होने से वे परम्परा बनकर शामिल हो गए। उदाहरणत: जैन धर्म में परमात्मा के आंगी की परम्परा पूर्व में नहीं थी. परंतु जब जैन धर्मावलम्बी वैष्णव धर्म की तरफ आकर्षित होने लगे तब उन्हें पुनः स्थापित करने हेतु आंगी आदि की जाने लगी और आज यह पर्वादि दिनों का आवश्यक अंग बन चुका है। आजकल आंगी में परमात्मा के मूल स्वरूप को विस्मृत कर उस आंगी के आधार पर जिनबिम्ब का मूल्यांकन करने लगते हैं तथा कई बार ऐसी वस्तुएँ आंगी में प्रयुक्त होती है जो नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार कई सत् एवं असत् वृत्तियाँ सम्मिलित हो गई।
SR No.006238
Book TitleJain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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