SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ (घ) स्वयंवरमतिचक्रबन्ध स्थि 2 (2) "स्वर्गोदारमिदं क्षणं सुमनसामीशोपलब्धादरम् 'यत्रोद्दामसुधाकरोद्यमविधिः सत्त्वप्रतिष्ठाक्षमः । वर्त्ततापि पुनीतसारमधुरा पद्मालयानां ततिः, तिष्ठन्ती स्वयमापतानवनव। रम्भाप्य मन्दस्थितिः ॥ " #: प् 1514 [ F 3. महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन $ C * ~ & 10 5 5 1 1 4 * ♚ * व * & MN. (8) दा मि स (R) पुत्र 5 L -जयोदय, ४६८ मा 14 अ य के छ क 上 ता न (५) इस चक्रबन्ध के घरों के प्रथम प्रक्षरों को क्रमशः पढ़ने से 'स्वयंवरमतिः' - यह शब्द बनता है । यह शब्द इस बात का संकेत देता है कि इस सर्ग में 'अनेक राजा सुलोचना स्वयंबर में पहुँचने की इच्छा रखते हुये काशी की ओर प्रस्थान करते हैं ।'
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy