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________________ महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-ग्रन्थों में भावपक्ष २६७ श्रीवर्द्धमानं भूवनत्रये तु विपत्पयोधेस्त रणाय सेतुम् । नमामि तं निजितमीन केतुं नमामितो हन्तु यतोऽघहेतः ।।" यहां पर कवि का ऋषभदेव के प्रति और वर्द्धमान भगवान् के प्रति भक्तिभाव अभिव्यजित हो रहा है। गुरुविषयक भक्तिमाव गुरुविषयक भक्तिभाव चार स्थलों पर वणित है। दो उदाहरण प्रस्तुत (क) ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि की गुरुभक्ति वणित है "समस्ति काव्योद्धरणाय मे तु गुरोमहानुग्रह एव हेतुः । पयोनिधेः सन्तरणाय सेतुर्वर्माथवा शस्त्रहति विजेतुम् ॥ (ख) राजा चक्रायुध यतिवेश धारण करके बन को चल देता है । वह अपने पिता मुनि अपराजित को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव करता है। उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व के सम्मुख नतमस्तक हो जाता है। विनयपूर्ण शन्दों में उनकी वन्दना करता है, और संसार-सागर से पार उतरने का उपाय पूंछता है । ज्यङ्ग्य व्यभिचारिभाव __ कवि ने स्थान-स्थान पर मति, अमर्ष इत्यादि व्यभिचारिभावों को बरे ही अच्छे ढङ्ग से अभिव्यजित किया है। अपरिपुष्ट स्थायिमाव ___ विस्मय, क्रोष इत्यादि स्थायिभावों की प्रपूर्ण अभिव्यञ्जना भी श्रीसमुद्रदत्तचरित्र में दृष्टिगोचर होती है । (5) बयोदयचम्पू में माव __ श्रीसमुद्रदत्तचरित्र के समान इसमें भी नृपविषयक भक्तिभाव को छोड़कर अन्य चार प्रकार के भाव वणित हैं । चारों सोदाहरण प्रस्तुत हैं १. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ११-२ २. वही, ११६ ३. वही, ७।२४.३३ ४. वही, ३१ ५. वही, ५॥३२ ६. वही, २।२४ ७. वही, ४११
SR No.006237
Book TitleGyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Tondon
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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