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________________ 35. पणतीसं अदालइज्जज्झयणं चउहिं ठाणेहिं खलु भो जीवा कुप्पन्ता मज्जन्ता गूहन्ता लुब्भन्ता वज्जं समादियन्ति, वज्जं समादिइत्ता चाउरन्तसंसारकन्तारे पुणो पुणो अत्ताणं परिविद्धंसन्ति, तंजहा : कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं। तेसिं च णं अहं परिघातहेउं अकुप्पन्ते अमज्जन्ते अगूहन्ते अलुब्भन्ते तिगुत्ते तिदण्डविरते णिस्सल्ले अगारवे चउविकहविवज्जिए पंचसमिते पंचेन्दियसंवुडे सरीरसाधारणट्ठा जोगसंधणट्ठा णवकोडीपरिसुद्धं दसदोसविप्पमुक्कं उग्गमुप्पायणासुद्धं तत्थ तत्थ इतराइतरकुलेहिं परकडं परणिद्वितं विगतिंगालं विगतधूमं सत्थातीतं सत्थपरिणतं पिण्डं सेज्जं उवहिं च एसे भावेमि त्ति अद्दालएणं अरहता इसिणा बुइतं। भो! जीव चार प्रकार से कुपित होकर, मानी होकर, मायावी होकर और लोभी होकर हिंसादि पापकर्म को ग्रहण करता है। पापकर्मों को ग्रहण कर चतुर्गतिरूप संसार-वन में पुनः-पुनः अपने आत्मगुणों का विध्वंस करता है। वे हैं—क्रोध, मान, माया और लोभ। अब मैं इन चारों कषायों का प्रतिघात-नाश करने हेतु क्रोध नहीं करता, मान नहीं करता, छद्म/छल-प्रपंच नहीं करता और लोभ नहीं करता। तीन गुप्तियों से रक्षित, मनो-वाक्-काय त्रिदण्ड से रहित, शल्य-रहित, महत्त्व अथवा अभिलाषा से रहित, चार विकथाओं से रहित, पांच समितियों से युक्त, पांचों इन्द्रियों से संवृत होकर, शरीर-धारण और योगसाधन के लिए नवकोटि विशुद्ध, दस दोषों से रहित, उद्गम और उत्पादन के दोषों से मुक्त, यहाँ-वहाँ विभिन्न कुलों में दूसरे के द्वारा बनाया हुआ और दूसरे के लिए निष्पादित, अग्नि और धूम्ररहित, शस्त्ररहित और शस्त्रपरिणत पिण्ड—भोजन, शय्या और उपधि ग्रहण करता हूँ। ऐसा अर्हत् अद्दालक (उद्दालक) ऋषि बोले Be it known that the individual lapses into violence and sin, tempted by wrath, vanity, illusion and greed. Being soiled by sinful deeds, he loses his spirituality, owing to the fourfold worldly vices-wrath, vanity, illusion and avarice. To remedy these four vices I avoid these evils of anger, ego, illusion and avarice. I am fully protected from vice in my mind, speech and 388 इसिभासियाई सुत्ताई
SR No.006236
Book TitleRushibhashit Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Sagarmal Jain, Kalanath Shastri, Dineshchandra Sharma
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_anykaalin
File Size33 MB
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