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________________ १७. मन, वचन, काया ने कर्मनी वर्गणा, . छूटे जहां सकळ पुद्गल संबंध जो; ए, अयोगी गुण स्थानक त्यां वर्ततुं, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो. अपूर्व० एक परमाणु मात्रनी मळे न स्पर्शता, पूर्ण कलंकरहित अडोलस्वरूप जो; शुद्ध निरंजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, अगुरुलघु, अमूर्त सहजपदरूप जो. __अपूर्व० १९. पूर्व प्रयोगादि कारणना योगथी, उर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप सुस्थित जो; सादि अनंत अनंत समाधिसुखमां, __ अनंत दर्शन, ज्ञान, अनंत सहित जो. अपूर्व० २०. जे पद श्री सर्वज्ञे दीढुं ज्ञानमां, कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो; तेह स्वरुपने अन्य वाणी ते शुं कहे ! अनुभवगोचर मात्र रह्यं ते ज्ञान जो. अपूर्व० २१. एह परमपदप्राप्तिनुं कर्यु ध्यान में, ___ गजावगर ने हाल मनोरथरुप जो; तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभुआज्ञाए था| तेज स्वरुप जो. _अपूर्व० . श्रीमान् राजचंद्रनुं जीवन आध्यात्मिक होई तेओर्नु आलेखन शी रीने करवु ? तेओनी दशा तेओनाज शब्दोमां कहेवी योग्य थइ पडशेः धन्य रे दिवस आ अहो, ___ जागी रे शांति अपूर्व रे; दश वर्षे रे धारा उल्लसी, ___ मट्यो उदय कर्मनो गर्व रे, धन्य. ओगणीसें ने एकत्रीसें, आव्यो अपूर्व अनुसाररे;
SR No.006234
Book TitleBalavbodh Mokshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Ravjibhai Mehta
PublisherMansukhlal Ravjibhai Mehta
Publication Year1915
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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