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________________ .३८ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन एवं चक्रवर्ती भरत के सेनापति जयकुमार के गुण-वैशिष्ट्य से प्रभावित होती है । लजाते हुए कांपते हाथों से उसे वरमाला पहना देती है । यह देख शेष राजाओं के मुख म्लान हो जाते हैं और जयकुमार के मुख की शोभा द्विगुणित हो जाती है । सप्तम सर्ग अर्ककीर्ति के सेवक को सुलोचना द्वारा जयकुमार का वरण अनुचित प्रतीत होता है। वह इसे काशी नरेश अकम्पन की पूर्व नियोजित योजना समझ लेता है और स्वामी अर्ककीर्ति को तीखे कटु वचनों द्वारा जयकुमार एवं अकम्पन के विरुद्ध उत्तेजित करता है। वह कहता है कि जयकुमार जैसे तो आपके कितने ही सेवक हैं । फिर अकम्पन ने कुल की एवं आपकी उपेक्षाकर सुलोचना द्वारा जयकुमार का वरण कराया है । इस प्रकार काशी भूपति ने हमारा युगान्तर स्थायी अपमान किया है, अतः उन्हें अपमान का प्रतिफल अवश्य ही चखाना चाहिए। दुर्मर्षण के वचनों से अर्ककीर्ति उत्तेजित हो जाता है । क्रोधावेश में आकर जयकुमार एवं अकम्पन दोनों को मारना चाहता है । वह अपने विचार को कार्यरूप में परिणत करने के लिये युद्धोन्मुख होता है । अर्ककीर्ति को युद्धोन्मुख देख अनवद्यमति मन्त्री उसे समझाता है कि राजा अकम्पन और जयकुमार दोनों ही हमारे अधीनस्थ भूपति हैं | जयकुमार एक असाधारण व्यक्ति है । आपके पिता भरत को चक्रवर्ती पद की प्राप्ति में जयकुमार का ही प्रमुख योगदान रहा । राजा अकम्पन तो आपके पिता के भी पूज्य हैं, अतः उनसे युद्ध करना तो गुरुद्रोह होगा । प्रमुख बात तो यह है कि युद्ध में आपकी विजय निश्चित नहीं है । यदि आप युद्ध में विजयी हो भी गये तो सुलोचना सती है वह आपकी नहीं हो सकेगी, अतः जय होने पर भी पराजय ही आपके हाथ रहेगी । अनवद्यमति मन्त्री के हितकारी वचनों का अर्ककीर्ति पर कोई प्रभाव न पड़ा । . अर्ककीर्ति के युद्धोन्मुख होने की सूचना अकम्पन को भी मिलती है । वे मंत्रियों से विचार-विमर्श कर एक शांतिदूत अर्ककीर्ति के समीप भेजते हैं । दूत के शान्तिपूर्ण वचनों को सुनकर भी अर्ककीर्ति युद्ध से विरत नहीं होता । दूत निराश होकर वापिस आ जाता है। इससे अकम्पन अत्यधिक चिन्तित हो जाते हैं । जयकुमार चिन्तित अकम्पन को धैर्य बंधाते हैं । वे उनसे सुलोचना की रक्षा का निवेदन कर उत्साहपूर्वक युद्ध की तैयारी करते हैं। राजा अकम्पन अपने हेमांगद आदि एक सहस्र पुत्रों के साथ जयकुमार की सहायता के
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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