SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन खडं दर्शयतेऽपि न धरेत्कोपं कदाचिन्मुनिः, पुष्प वा चरणार्चनं विदधते न स्यात्प्रसादावनिः । माध्यस्यं विपदीव सम्पदि वहेत्तुल्यत्वयुक् चेतसा, सम्यग्नानचरित्रलक्षणवृषं प्राप्तस्य चैषा दशा ॥३८॥ प्रातः और सायंकाल अपने कार्य का संशोधन करना, मध्याह्न में शरीर की स्थिति हेतु नगर में जाकर आहार ग्रहण करना, मध्यरात्रि में दो मुहूर्त तक मौन रहना, अनन्तर रात्रि में क्षणिक विश्राम करना तथा इन्द्रियों को जीतने के लिए शेष समय में स्वाध्याय करना ही साधु की दिनचर्या है - प्रातः सायमुपाकरोतु यतिराट् संशोधनं स्वीकृतेमध्याह्ने पुनरभ्युपैतु वसतिं सम्पतयेऽग्रस्थितेः । रात्रेमध्यमुहूर्तयुग्मभवतान्मौनी मनाङ्निद्रया, स्वाध्यायेन समस्तमन्यसमयं व्यत्पेतु जेतुं स्यान्॥४५॥ प्रस्तुत मुक्तक काव्य उपदेशात्मक है । अतः विषय के अनुसार इसकी भाषा प्रसादगुण सम्पन्न है । दीर्घ समासों का इसमें अभाव है और श्रवण मात्र से पद्यों का अर्थ हृदयंगम हो जाता है। ऋषि कैसा होता है? यह लघुकाय कृति अप्रकाशित है । इसमें ४० पद्य हैं । प्रस्तुत कृति में महाकवि ने ऋषि के स्वरूप एवं चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग का निरूपण किया है। कवि को दृष्टि में ऋषि वह होता है जो अपने कर्तव्य को स्वयं सम्पादित करता है। वह अपने कार्य के लिए अन्य का सहारा नहीं लेता । ऐसा ऋषि ही महर्षि होता है । ऋषि आरम्भ-परिग्रह का पूर्ण त्यागी होता है | त्यागी होने पर भी चलने-फिरने के लिए पृथ्वी का एवं ठहरने के लिए पर्वत की गुफा आदि का आश्रय लेता है । अनुकूल स्थान पर धर्मध्यान करते हुए काल बिताता है। शरीर की स्थिति हेतु गृहस्थ के घर आहार ग्रहण करने के लिए जाता है । वह प्रतिसमय समभाव रखता है । सम्यक्त्वसार शतक महाकवि द्वारा प्रणीत “सम्यक्त्वसार शतक" एक उच्च कोटि का आध्यात्मिक काव्य है । इस काव्य में जैन दर्शन के सिद्धान्तों, रहस्यों का सहज भाषा में विवेचन हुआ है । "सभ्यस्त्व" जैन दर्शन की आधार शिला है । इसके अभाव में श्रावक का श्रावकत्व
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy