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________________ १३ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन वह तीर्थंकर बन कर स्व-पर का कल्याण करेगा । रानी यह सुनकर अति हर्षित होती है। वर्धमान के गर्भ में आने पर स्वर्ग से आयीं छप्पनकुमारी देवियाँ माता की निरन्तर सेवा करती हैं । वे उनका मनोरंजन करने के साथ ही अनेक प्रश्नों को पूँछकर अपने ज्ञान का संवर्धन करती हैं । इसे सरल सुबोध भाषा में पंचम सर्ग में कवि ने स्पष्ट किया है । ___षष्ठ सर्ग में त्रिशलादेवी की गर्भकालिक दशा का चित्रण है एवं बसन्त ऋतु के सौन्दर्य का आलंकारिक वर्णन पाठकों को रस विभोर कर देता है। सप्तम सर्ग में बालक वर्धमान के जन्म एवं जन्मोत्सव का वर्णन है । जन्म के समय स्वर्ग से इन्द्रादि देवगणों के आगमन का, इन्द्राणी द्वारा किये गये कार्यों का, सुमेरुपर्वत पर क्षीरसागर के जल से कुमार वर्धमान के अभिषेक आदि का सजीव वर्णन किया गया है । ___अष्टम सर्ग में कवि ने वर्धमान की बाललीलाओं और कुमार क्रीड़ाओं का वर्णन किया है । इसी सर्ग में बतलाया गया है कि बालक वर्धमान कुमार अवस्था पार कर युवा हो जाते हैं । राजा सिद्धार्थ अपने पुत्र वर्धमान के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते हैं । पर वे उसे अस्वीकार कर देते हैं । यह घटना उनकी जन्मजात लोकोद्धारक मनोवृत्ति की घोतक नवम सर्ग में वर्धमान संसार की दुर्दशा विषयक चिन्तन करते हैं । उनके हृदय में संसारी प्राणियों की तात्कालिक स्थिति को देखकर जो विचार उत्पन्न होते हैं, वे अत्यन्त मार्मिक एवं हृदयद्रावक हैं । युवा वर्धमान स्वार्थलिप्सा, हिंसा, अधर्म, व्यभिचार आदि समाज में पल रही सभी प्रकार की बुराइयों को दूर करने का दृढ़ निश्चय करते हैं । इसी समय शरद ऋतु का आगमन होता है। दशम सर्ग में वर्धमान के वैराग्य एवं तपकल्याण का मनोहारी वर्णन हुआ है। ऋतु परिवर्तन से वर्धमान को संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान होता है जिससे उनमें वैराग्यभाव उदित हो जाता है। स्वर्ग से लौकान्तिक देव आकर उनके वैराग्यभाव का अनुमोदन करते हैं । वैराग्यरस में पगे हुए वर्धमान गृह-संसार का परित्याग कर वन में जाते हैं । वहाँ वस्त्राभूषण त्याग कर पञ्चमुष्टि केशलुञ्च करते हैं और दिगम्बर दीक्षा अंगीकार कर लेते एकादश सर्ग में बतलाया गया है कि तपस्या करते हुए उन्हें अपने पूर्व-जन्मों का ज्ञान हो जाता है । इस घटना से उन्हें संसार परिभ्रमण का कारण समझ में आता है और उससे बचने के लिए बाह्य परिग्रहादि एवं आन्तरिक मद-मत्सरादि दुर्भावों का परित्याग करना आवश्यक मानते हैं।
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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