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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन नव प्रवर्तन उस समय पाठ्यक्रम में व्याकरण, साहित्य आदि के जैनेतर ग्रन्थ ही निर्धारित थे, क्योंकि अधिकांश जैन ग्रन्थ अप्रकाशित थे, अतएव अनुपलब्ध थे । फलस्वरूप जैन छात्रों को जैनेतर ग्रन्थों का ही अध्ययन करना पड़ता था । इससे श्री भूरामल जी को अत्यन्त दुःख होता था। वे सोचते थे कि जैन आचार्यों ने व्याकरण, न्याय एवं साहित्य के अद्वितीय ग्रन्थों की रचना की है, किन्तु हम उन्हें पढ़ने के सौभाग्य से वंचित हैं । यह पीड़ा उनके मन में उथल-पुथल मचाती रहती थी। तब तक जैन - न्याय और व्याकरण के कुछ ग्रन्य प्रकाशित हो चुके थे। इसका सुफल यह हुआ कि आपने अन्य लोगों के सहयोग के अथक प्रयल करके उन ग्रन्थों को काशी विश्वविद्यालय और कलकत्ता परीक्षालय के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करवा दिया । इस समय आपकी दृष्टि इस तथ्य पर गयी कि जैन वाङ्मय में काव्य और साहित्य के ग्रन्थों की न्यूनता है। अतः आपने संकल्प किया कि अध्ययन समाप्ति के अनन्तर इस न्यूनता को दूर करेंगे । यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि वाराणसी में आपने व्याकरण, न्याय और साहित्य के जैनाचार्य विरचित ग्रन्थों का ही अध्ययन किया । उस समय स्याद्वाद महाविद्यालय में जितने भी अध्यापक थे, वे सभी अधिकांशतः ब्राह्मण थे । वे जैन ग्रन्थों को पढ़ाने और प्रकाश में लाने की तीव्र इच्छा थी । अतएव जैसे भी, जिस अध्यापक से भी संभव हुआ आपने जैन ग्रन्थों का अध्ययन किया ।' इस समय महाविद्यालय में पंरित उमरावसिंह जी धर्मशास्त्र के अध्यापक थे, जो बाद में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण कर अमचारी मानानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए । उनसे भूरामल जी को जैन ग्रन्थों के पठन-पाठन के लिए प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मिला । इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में उनका गुरु रूप में स्मरण किया है - विनानि तु सन्मतिकमका यामितकमहितं जगति तमाम् । गुणिनं मानानन्दसुवासं रुक तुपा पूर्तिकरं को ॥ मोदय २८/१०० प्रस्तुत श्लोक के प्रत्येक चरण के प्रथम अक्षर के योग से "पियामु" पद बनता है तथा उनका "मानानन्द" नाम उल्लेखित कर भूरामल जी ने अपने गुरु को नमन किया है। भूरामल जी अध्ययनकाल से ही स्वावलम्बी थे। विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया । वे सायंकाल गंगा के घाटों पर गमछे बेच कर १. डॉ. रतनचन्द जैन, आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का जीवन वृत्तान्त, कर्तव्यपथ प्रदर्शन, पृष्ठ - २-३ -
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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