SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - जिनका सौन्दर्य अनुपम था ऐसे राजा जयकुमार भी सज-धज कर आये । उनके आने से सभा जगमगा उठी | उनके आगे कामदेव भी पानी भरता था । जयकुमार के अनुपम सौन्दर्य की व्यंजना के लिए 'कामः नीरमीरयति" (उनके सामने कामदेव भी पानी भरता था) इस मुहावरे से अधिक सशक्त उक्ति और कोई नहीं हो सकती थी। विम्बविधान में महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी सिद्धहस्त हैं । इसका नमूना निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है : लवणिमाजदलस्वजलस्थितिस्तरुणिमायमुषोऽरुणिमाचितिः। लसति जीवनमजलिजीवनमिह दधात्ववर्षि न सुपीजनः ॥ २५/५ __- युवतियों का सौन्दर्य कमलपत्र पर स्थित पानी की बूंद के समान है, युवावस्था सन्ध्या समय की लालिमावत् है । जीवन अंजलि में स्थित जल के सदृश है । अतः ज्ञानीजन समय को व्यर्थ नहीं खोते । इन उपमाओं के द्वारा जो दृश्य (दृष्टिपरक बिम्ब) उपस्थित किये गये हैं उनमें पदार्थों की क्षणभंगुरता साकार हो उठी है । कवि ने अमूर्त नश्वरता को मूर्त रूप दे दिया है । नश्वरता आँखों से दिखाई देती हुई प्रतीत होती है । मानवीय आचरण की मनोवैज्ञानिकता का बोध कराने के लिए कवि ने लोकोक्तियों की शैली का कितना सफल प्रयोग किया है, यह निम्न उक्ति में दर्शनीय है - आस्तदा सुललितं चलितव्यं तन्मयाऽवसरणं बहुभव्यम् । श्रीचतमपक उत्कलिताय कस्यचिद व्रजति चित्र हिताय ॥ ४/७ भाव यह है कि अर्ककीर्ति आमंत्रण न मिलने पर भी राजकुमारी सुलोचना के स्वयंवर में जाने के लिए तैयार हो जाता है, क्योंकि चौराहे पर पड़े रत्न को कौन नहीं उठाना चाहता ? विस्तारभय से यहाँ जयोदय में प्रयुक्त शैली के अन्य प्रकारों जैसे अलंकारविधान, विभावादियोजना, लक्षणात्मक एवं व्यंजनात्मक शब्दनिवेश आदि के निदर्शन प्रस्तुत नहीं किये जा कु० आराधना जैन ने 'जयोदय' की काव्यभाषा के इन समस्त उपादानों का सम्यक् उन्मीलन किया है। काव्यात्मभूत रस और भावों के सौन्दर्य तथा पात्रों के चारित्रिक वैशिष्ट्य को भी दृष्टि का विषय बनाया गया है । प्रबन्ध की भाषा परिष्कृत एवं सुबोध है । प्रकाशित होने पर यह विद्वज्जगत् में सम्मान प्राप्त करेगा तथा शोधार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसी आशा डॉ० रतनचन्द्र जैन रीडर, संस्कृत एवं प्राकृत भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल (म.प्र.)
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy