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________________ प्रथम परिशिष्ट महाकवि आचार्य ज्ञानसागर की अप्रकाशित संस्कृत रचनायें महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की दो मौलिक कृतियों की पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हुई हैं - वीरशर्माभ्युदय और भक्तियाँ । यहाँ अतिसंक्षेप में इनकी जानकारी मात्र दी जा रही है, जिससे उत्कृष्ट साहित्यकार की साहित्य सम्पदा का परिचय मिल सके वीरशर्माभ्युदय - 1 जयोदय, वीरोदय के समान ही वीर शर्माभ्युदय भी एक महाकाव्य है । वीरोदय के समान ही इसका कथानक तीर्थंकर महावीर के त्याग-तपस्या से परिपूर्ण जीवन पर आधारित है । प्रस्तुत महाकाव्य के मात्र छह सर्ग उपलब्ध हुए हैं। जयोदय के समान ही कवि ने इसकी स्वोपज्ञ टीका भी लिखी है । उपलब्ध सर्गों का पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य ने सम्पादन एवं अनुवाद भी कर दिया है। शेष सर्गों का अन्वेषण किया जा रहा है । सर्गों का वर्ण्यविषय इस प्रकार है - प्रथम सर्ग में कवि ने मंगलाचरण कर अपनी लघुता प्रदर्शित की है । अनन्तर सज्जनों की प्रशंसा तथा दुर्जनों के स्वरूप का निदर्शन, विदेहदेश भरतक्षेत्र, कुण्डलपुर नगर, वहाँ स्थित जिनालय, भवनों का मनोहारी वर्णन किया है। द्वितीय सर्ग कुण्डलपुरनरेश सिद्धार्थ की शारीरिक सुषमा, विजययात्रा, प्रताप और विशुद्ध कीर्ति का द्योतक है। तृतीय सर्ग राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला के अंग-प्रत्यंग के सौन्दर्यनिरूपण के लिए समर्पित है । चतुर्थ सर्ग में कवि ने श्लेषोपमा अलंकार के द्वारा राजा सिद्धार्थ की सभा एवं राजा के गुणवैशिष्ट्य का विशद विवेचन किया है । इसी मर्ग में इस तथ्य कि- 'त्रिशला के गर्भ में तीर्थंकर आयेंगे' इन्द्र अवधिज्ञान के द्वारा गर्भ में आने के छह माह पूर्व जान लेता है, को मनोहारी ढंग से चित्रित किया गया है । इन्द्र देवियों को तीर्थंकर की होने वाली माता की सेवा करने अन्तःपुर में भेजता है । देवियाँ वहाँ जाकर रानी के प्रति मंगल कामना करती हैं और निरन्तर उनकी सेवा में तत्पर रहती हैं । एक दिन रात्रि के अन्तिम प्रहर में रानी सोलह स्वप्न देखती है - ऐरावत हाथी, वृषभ, सिंह, गजलक्ष्मी, दो मालाएं, चन्द्रमा, सूर्य । पाण्डुलिपि में सात स्वप्नों के उपरान्त के पृष्ठ उपलब्ध नहीं हैं, अतः यह सर्ग अपूर्ण है । इन अनुपलब्ध पृष्ठों में सोलह में से शेष स्वप्न, उनका फल एवं गर्भकल्याणक का वर्णन होना चाहिए । पञ्चम सर्ग में तीर्थंकर के जन्माभिषेक और षष्ठ सर्ग में उनकी बाल्यावस्था, बालक्रीड़ाओं की आलंकारिक भाषा में प्रभावशाली अभिव्यंजना हुई है । इन सर्गों में क्रमशः ९१, ७१, ८५, ७८ एवं १०० पद्य हैं । यह पाण्डुलिपि अन्वेषण एवं प्रकाशन की प्रतीक्षा में है ।
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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