SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • २१६ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन देती है अतः उससे सदैव दूर रहना चाहिए।' शर्त लगाकर कोई भी काम करना द्यूत है । इसमें हारने और जीतने वाले दोनों संक्लेश पाते हुए नाना प्रकार के कुकर्मों में प्रवृत्त होते हैं । चर जीवों का शरीर मांस नाम से प्रसिद्ध है, जिसका खाना तो दूर, नाम लेना भी सज्जनों के बीच सर्वथा निषिद्ध है । इसलिए उत्तम शाक-फलादि के रहते हुए मांस खाना महापाप है।' इस भूतल पर भांग, तमाखू, सुलफा, गाँजा, आदि वस्तुओं को निर्लज्ज हो स्वीकार करनेवाला मानव बुद्धि-विकार, परवशता और अत्यन्त दीनता प्राप्त करता है । इसीलिए जो इन मदकारी पदार्थों से मत्त हो जाता है, वह धन्य नहीं, अपितु निन्द्य है ।" मधु (शहद) मधुमक्खियों के मेदे की धाराओं से भरा होता है और मक्खियों के छत्ते को निर्दयतापूर्वक निचोड़कर निकाला जाता है, अतः वह भी अभक्ष्य है। वैश्या मानों सम्पूर्ण पापों का हाट है, चौराहे पर रखी जल की मटकी के समान सभी के लिए भोग्या है । उसके उपभोग में कल्याण लेशमात्र भी नहीं होता । किन्तु इसके विपरीत वह शरीर की शोषक है, अनेक प्रकार के उपदंश आदि रोग होकर शरीर का नाश करती है । अतः उसके साथ प्रणय सर्वथा अनैतिक है। जो लोग शिकार खेलते हैं, वे विनोदवश निरपराध प्राणियों का संहार करते हैं । वे यमराज के निकट कठोर दण्ड के भागी बनते हैं। धन संसार भर के प्राणियों को प्राणों से भी अधिक प्रिय होता है। उसका अपहरण करने वाले का चित्त स्वयं ही भयभीत हुआ करता है । अपनी शीघ्र मृत्यु के लिए अपने हाथों खोदे गये गड्ढे के समान इस चौर्यकर्म को करना श्रेयस्कर नहीं है। . यह जीवनपद्धति परम्परया मोक्ष का कारण है । आर्यजन इसका आश्रय लेते हैं। इसके विरुद्ध जो स्वेच्छाचरण, है वह अनार्यपुरुषों की जीवनपद्धति है । वह संसार में ही भ्रमण कराती है । उससे मनुष्य नरकादि गतियों के भयंकर दुःखों का पात्र बनता है । am १. जयोदय, २/१२६ २. वही, २/१२७ ३. वही, २/१२८ ४. वही, २/१२९ ५. जयोदय, २/१३० ६. वही, २/१३३ ७. वही, २/१३४ ८. वही. २/१३५ १. वही, २/१३६
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy